________________
-
॥ पर्याप्तिद्वारवर्णनम् ॥ (४३) आहारपर्याति--आहार ग्रहण करी आहारपणे परिणमावी खल-रस जुदां करवानी शक्ति आहारपयोसि आ पर्याप्ति उत्पत्ति स्थाने आवेला जीवने प्रथम समये जप्रगट थाय छे, अहिं ग्रहण करेल आहारनो केटलोक भाग देहपणे परिणमे नहिं एवो होय तेनो त्याग करे छे, अने देहपणे परिणमवा योग्य आहारने देडपणे परिणमावे छे, त्यां देहपणे परिणाम न पामे एवा आहारने खलरूप-(कूचारुप) कही शकाय, अने शेष आहारने रसरूप कही काय, अन्यथा म'ळ-मूत्रनेम खलरस मानीये तो वैक्रिय अने आहारकनी पर्याप्तिमां खलरस पृथक्करणनो असंभव छे, तो तेमां ए आहार पर्याप्तिनो अर्थ केम समीचीन थाय ? पुनः आ पर्याप्ति एकज समयमां समाप्त थाय छे.
शरीर पर्याप्ति-ग्रहण करेला आहारने शरीरपणे परिणमाववानी शक्ति ते दरेक जीवने अन्तर्मुहूर्तकाळे प्रगट थाय छे. ___ इन्द्रियपर्याप्ति-ग्रहण करेला :आहारमाथी इन्द्रिय योग्य पुद्गलोने अभ्यन्तर निर्दृत्ति इन्द्रियपणे परिणमावी इन्द्रियद्वारा विषय जाणवानी शक्ति प्राप्त थाय ते औदा० शरीरीने अन्तर्मु०काळे अने आहा० तथा वै० शरीरीने एक समये प्रगट थाय छे.
उच्छ्वास पर्याप्ति-श्वासोश्वास योग्य पुद्गलो ग्रहण करी, श्वासोच्छ्वासपणे परिणमावी, अवलंबीने विसर्जन करवानी शति. ते औदा० शरीरने अन्तर्मुहर्त अने आहा० वैशरीरीने १ समये प्रगट थाय छे.
भाषापर्याप्ति-भाषायोग्य पुद्गलो ग्रहण करी, भाषापणे परिणमावी-(भाषारूप बनावी) अवलंबोने विसर्जन करवानी शक्ति. तेनो काळ इन्द्रिय पर्याप्तिवत्.