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॥ दंडकेषु संज्ञाद्वारवम् ॥ (१२५) अवतरण-आ गाथाना पूर्वाधमां बाकी रहेला दंडकोए संज्ञा, अने उत्तरार्धमाथी आगति तथा गतिद्वार कहेवानां प्रारंभमां प्रथम देवमां आगतिद्वार कहे छे.
॥मूळ गाथा ३३ मी,॥ मणुआण दीहकालिय, दिट्ठीवाओवएसिया केवि । पज्जपणतिरिमणुअच्चिय,चउविह देवेसु गच्छति॥३३॥
॥संस्कृतानुवादः॥ मनुष्याणां दीर्घकालिकी, दृष्टिवादोपदेशिकाः केपि । पर्याप्तपंचेन्द्रियतिर्यग्मनुजा एव चतुर्विधदेवेषु गच्छंति ।३६
॥शब्दार्थः॥ मणुआण-मनुष्योने | पण-पंचेन्द्रिय दीहकालिय-दीर्घकालिकीसंज्ञा | तिरि-तिर्यंचने दिछीवाओवएसिया-दृष्टि- मणुअ-मनुष्य
वादोपदेशिकी संज्ञा चिअ-निश्चय के-केटलाएक
चउविह–चारप्रकारना वि- पण वळी
देवेसु-देवोमां पज्ज-पर्याप्त
गच्छति-जायछे गाथार्थ:-मनुष्योने दीर्घकालिकी संज्ञा छे. अने केटलाएक ( मनुष्यो )ने तो दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा पण होय छे, ॥
पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच, अने पर्या० मनुष्यो ज चारे प्रकारना देवोमां जाय छे,
१ चोथी गाथामां द्वारोनो जे अनुक्रम दर्शाव्यो छे, ते मां प्रथम गतिद्वार अने बीजं आगतिवार कयु छे, ने अहिं दडकोमा अवतारतां प्रथम आगतिद्वार अने त्यारबाद गतिद्वार कहेवाशे ए क्रमविपर्यय वक्तानी विवक्षाने आधारे होय छे.