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________________ ॥ दंडकविस्तरार्थः ।। सळग्या बाद एकदम होलवाय नहिं तेम स्त्रीवेद पण जागृत थतां पुरुषना संगमथी पण शीघ्र उपशमे नहिं. तथा नपुंसकवेद नगर दाहना अग्नि सरखो छे, कारणके द्वारिका नगरीनो दाह जेम ६ मास मुधी शान्त न थयो तेम नपुंसकवेद संगमथी शान्त न थाय अथवा नपुंसकपणाथी संगम थइ शके नहिं ने तेथी विषयेच्छा जागृत ने जागृत रहे छे. ए नपुंसक वेदना १६ भेद छे तेनो विस्ता. र नवतत्व विस्तरार्थमां कह्यो छे. त्यांथी जाणवो. अवतरण-हवे चोवीश दंडके २४ द्वार उतारतां प्रथम २४ दंडके शरीर द्वार उताराय छे.. । ॥ मूळ गाथा ५ मी, ॥ चउ गम्भतिरियवाउसु, मणुआणं पंच सेस ति सरीरा । थावरचउगे दुहओ. अंगुल असंखभागतणु ॥५॥ ॥ संस्कृतानुवादः ॥ चत्वारि गर्भजतियंगवायुषु, मनुष्याणां पंच शेषेषु त्रीणि शरीराणि। स्थावरचतुष्के द्विधा, अंगुलासंख्येयभागतनुः ॥५॥ ॥ शब्दार्थ ॥ चउ-चार सरीरा-शरीर छे. गम्भतिरिय-गर्भजतिर्यंच थावरचउगे-४ स्थावरमां (ने) वाउमु-वायुकायमां (ने) दुहओ-बन्ने प्रकारे मणुआण-मनुष्योने अंगुल-अंगुलनो पंच-पांच ( शरीर ) असंख-असंख्यातमो शेष-बाकीना दंडकोमां भाग-भाग ति-त्रण तणू-शरीर छे.
SR No.022358
Book TitleDandak Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajasarmuni, Vijayodaysuri
PublisherGranth Prakashak Sabha
Publication Year1925
Total Pages222
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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