________________
॥ दंडकेषु आहारहारम् ॥ (१२१) विगले-विकलेन्द्रियोने
[अथवा सू०वनस्पत्यादि] पंच-पांच
पदे-स्थानकमां पजत्ती-पर्याप्ति
भयणा-भजना-विकल्पे छद्दिसि-छ दिशाओथी
अह-हवे आहार-आहार
सन्न-संज्ञा होइ-छे
तियं-त्रण सव्वेसिं-सर्वदंडकोने
- भणिस्सामि-कहीश पणगाइ-पांच दिशि इत्यादिक
गाथार्थः-विकलेन्द्रियोने पांच पर्याप्ति छे. ६ दिशिथी आवेलो आहार सर्व जीवोने होय छे पण पांच दिशि इत्यादि (त्रण) पदमां (-५ दिशि-४ दिशि-ने ३ दिशि ए ३ पदमां) विकल्पे छे, बीजो अर्थ-सर्व जीवोने ६ दिशिथी आवेलो आहार होय छे, पण सू० वनस्पत्यादि ( पांच ) स्थानकोमा विकल्प छ, हवे त्रण संज्ञाओनुं द्वार कहीश.
विस्तरार्थः-विगले पंचपज्जत्ती विकलेन्द्रियोने आहार --शरीर--इन्द्रिय--उच्छ्वासने भाषा ए पांच पर्याप्ति छे, कारणके ए जीवोने जीहाइन्द्रिय अने मुख होवाथी अव्यक्त उच्चार करी शके छे, अने सम्मूच्छिम होवाथी मननो अभाव छ माटे मन:पर्याप्ति होय नहिं. ___ तथा दंडकमां अनधिकृत सम्म०मनुष्य आहार--शरीर-ने इ. न्द्रिय ए ३ पर्याप्तियो होय, अने सम्मूतिर्यच पंचे० ने विकले. वत् ५ पर्याप्तियो होय.
॥ इति पर्याप्तिद्वारम् ॥