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________________ - - - (१३८) ॥ दंडकविस्तरार्थः ॥.... ॥ मूळ गाथा ३४ ॥ वेयतिय तिरिनरेसु, इत्थि पुरिसो य चउविहसुरेसु । थिरविगल नारएसु, नपुंसवेश्रो हवइ एगो ॥४०॥ संस्कृतानुवादः॥ घेदनिकं तिर्यग्नरयोः स्त्री पुरुषश्च चतुर्विधसरेषु । स्थिरविकलनारकेषु, नपुंसकवेदो भवत्येकः ॥४०॥ शब्दार्थः॥ वेय-वेद थिर-स्थावर तिय-त्रग विगल-विकलेन्द्रिय तिरिनरेसु-तिर्यचमनुष्योमा नारएम-नारकोपां (ने) इत्थी-स्त्रीवेद नपुंसवेओ-नपुंसक वेद पुरिसो-पुरुषवेद य-अने हवइ-छे चउविह-चारमकारना एगो-एक सुरेसु-देवोमां (देवोने) गाथार्थ:-तिर्यच अने मनुष्योमा त्रण वेद छ, चार प्रकारना देवोमां स्त्रीवेद अने पुरुषवेद छे, अने स्थावर ( एकेन्द्रिय ) --विकलेन्द्रिय-तथा नारकोमा एक नपुंसमवेद ज छे. विस्तरार्थ:----तिर्यंच तथा मनु०मा ३ वेद कह्या त्यां स4 सम्म०मनुष्य तथा सम्म तिर्यंच पञ्चन्द्रियने फक्त एक नपुंसकवेद होय, अने गर्भज जीवोमां केटलाएक पुरुषवेदी केटलाएक स्त्रीवेदी ने केटलाएक जीवो नपुंसकवेदी पण होय छे, ___ तथा चारे प्रकारना देवोमां नपुंसकवेद नहिं होवायी मात्र स्त्रीवेद अने पुरुषवेदज छे, शेष व्याख्या सुगम छे.
SR No.022358
Book TitleDandak Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajasarmuni, Vijayodaysuri
PublisherGranth Prakashak Sabha
Publication Year1925
Total Pages222
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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