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॥ देडकविस्तराधा ॥
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नाणन्नाण दु विगले, मणुए पण नाण तिअनोणा २०
॥ संस्कृतानुवादः ॥ अज्ञानज्ञानत्रिकं त्रिकं, सुरतिर्यग्नैरयिकेषु स्थिरेऽज्ञानदिक। ज्ञानाज्ञानदिकं विकले, मनुजे पंच ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि॥
॥शब्दार्थः ॥ अन्नाण-अज्ञान
दुगं-बे नाण-ज्ञान
नाण-ज्ञान तिय तिय-त्रण त्रण
अन्नाण-अज्ञान मुर-देवने तिरि-तियेचने
विगले-विकलेन्द्रियोने निरए-नारकने
मणुए-मनुष्यने थिरे-स्थावरने
पण नाण-५ज्ञान अनाण-अज्ञान
ति अनाणा-३ अज्ञान गाथार्थः-देव तिर्यंच अने नारकने ३ अज्ञान ने ३ ज्ञान छ, स्थावरोने वे अज्ञान छे, विकलेन्द्रियोने बे ज्ञान तथा बे अज्ञान है, अने मनुष्यने ५ ज्ञान अने ३ अज्ञान छे (अहिं ज्ञान तथा वज्ञान एवे द्वार कहेवायां).
विस्तरार्थः-अन्नाणनाणतियतिय सुरतिरिनिरएदेवना १३ दंडक, ग० तिर्यचनो १ दंडक, अने नारकनो १ कि ए १५ दंडकमां पण ज्ञान ३ अज्ञान छ, एम सामान्ययी कह्यु, से विशेषतः आ प्रमाणे
सर्व इन्द्र-दरेक विमानना अधिपति देवो-आयः सर्व लोकाक. ५ अनुत्तरना सर्व देवो ए सर्व सम्यग्दृष्टि होवाथी म०-अब कानवाला के. १५ परमापार्मिक भने । किल्कि