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________________ (४) ॥ देडकविस्तराधा ॥ - - नाणन्नाण दु विगले, मणुए पण नाण तिअनोणा २० ॥ संस्कृतानुवादः ॥ अज्ञानज्ञानत्रिकं त्रिकं, सुरतिर्यग्नैरयिकेषु स्थिरेऽज्ञानदिक। ज्ञानाज्ञानदिकं विकले, मनुजे पंच ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि॥ ॥शब्दार्थः ॥ अन्नाण-अज्ञान दुगं-बे नाण-ज्ञान नाण-ज्ञान तिय तिय-त्रण त्रण अन्नाण-अज्ञान मुर-देवने तिरि-तियेचने विगले-विकलेन्द्रियोने निरए-नारकने मणुए-मनुष्यने थिरे-स्थावरने पण नाण-५ज्ञान अनाण-अज्ञान ति अनाणा-३ अज्ञान गाथार्थः-देव तिर्यंच अने नारकने ३ अज्ञान ने ३ ज्ञान छ, स्थावरोने वे अज्ञान छे, विकलेन्द्रियोने बे ज्ञान तथा बे अज्ञान है, अने मनुष्यने ५ ज्ञान अने ३ अज्ञान छे (अहिं ज्ञान तथा वज्ञान एवे द्वार कहेवायां). विस्तरार्थः-अन्नाणनाणतियतिय सुरतिरिनिरएदेवना १३ दंडक, ग० तिर्यचनो १ दंडक, अने नारकनो १ कि ए १५ दंडकमां पण ज्ञान ३ अज्ञान छ, एम सामान्ययी कह्यु, से विशेषतः आ प्रमाणे सर्व इन्द्र-दरेक विमानना अधिपति देवो-आयः सर्व लोकाक. ५ अनुत्तरना सर्व देवो ए सर्व सम्यग्दृष्टि होवाथी म०-अब कानवाला के. १५ परमापार्मिक भने । किल्कि
SR No.022358
Book TitleDandak Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajasarmuni, Vijayodaysuri
PublisherGranth Prakashak Sabha
Publication Year1925
Total Pages222
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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