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॥ दंडकविस्तरार्थः ॥
वत्र उत्पन्न थती लब्धिपर्या० बादर पृथ्वी, लब्धिपर्या० बा० अप, अने ल० पर्या० बा० प्रत्येक वनस्पतिमां ज देवोनुं आगमन( गति. -उत्पत्ति) छे. कारणके देवो मरण पामीने अपर्याप्ता थता नथी, तेमज देवोच्यवीवमां अने नारकमां पण न जाय अने विकलेन्द्रियमां तथा अग्नि वायुमा उत्पन्न थतां नथी, ए प्रमाणे देव ( ना १३) दंडक नी गति सामान्यथी कही, अने विशेष एम छे के भुवनपति--व्यन्तर--ज्योतिषि-सौधर्म- ने इंशान एटला देवलोकना देवोज पूर्वोक ५ स्थाने जाय छ, सनत् कुमारथी सहस्रार सुधीना देवो संख्येयायुष्क ल० पर्या० ग० तिर्यंच अने एज विशेषणवा. ला ग० मनुष्योमा जाय छे आनतादिथी सर्वार्थ सुधीना देवो फक्त कर्मभूमिमां संख्यात आयुष्यवाला पर्याप्त गर्भज मनुष्यो. मांज जाय छे, पुनः प्रत्येक वनस्पतिमा जे देवो उत्पन्न थाय छे, ते पण अमुकज उत्पन्न थाय छे. ते संबन्धि विशेष विगत श्री भगवतीजीमां अथवा द्रव्य लोकप्रकाशमां छे त्यांची जाणवी.
पुनः केटलाएक देवोने जेओ प्रथमथी जाणे छे के मारे अमुक वृक्षमा उत्पत्न थवानुं छे तो ते देवो मान दशाना बशथी ते . क्षनो दैविक चमत्कार दर्शावी लोकोमां पूजनीक करे छे, ने से क्षनो महिमा वधारे छे,
अवतरण-आ गाथामां नारक जीवोनी आगति तथा गति (-कया कया जीवो नारकगतिमां आवे. अने नारको मरण पामीने कइ कइ गतिमां जाय ते ) कहे छे.