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प्रस्तावना कौन यन्ध किस हेतुसे होना है इसका विचार किया जाता है तब ये दो प्राप्त होते हैं।
ये नयन्धके मामान्य कारण हैं विशेष कारण जुदे-जुदे है।
वार्थमत्रमें विशेष कारणों का निर्देश मात्र स्थानमें किया गया है।
कर्मके भेद-जैनदर्शन प्रत्येक गन्यमें अनन्त शक्तियां मानता है। जीव मी एक हव्य है अत उममें भी अनन्त शक्तियां हैं। जब यह संसार दशामें रहता है तर उसकी वे शक्तियां कर्ममे प्रावृत रहती है। पटन कर्म भन्न भेद हो जाते है। किन्तु जोवकी मुख्य शक्तियोंकी अपेक्षा कमके पाठ भेद किये गये हैं। यया, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ।
ज्ञानावरण-जीवनी ज्ञान-शक्तिको आवरण करनेवाले कर्मकी ज्ञानावरण मक्षा है। इसके पांच मेद है। ___दर्शनावरण-जीवको दर्शन शक्तिको भावरण करनेवाले कर्मको दर्शनावरण सज्ञा है। इसके नौ भेद है।
वेदनीय-मुख और दु.स्वका वेदन करानेवाले फर्मकी वेदनीय संज्ञा है। इसके दो भेद हैं।
मोहनीय-राग, द्वेष और मोहको पैदा करनेवाले कर्मकी मोहनीय संज्ञा है। इसके दर्शन मोहनीय और चारिन मोहनीय ये दो भेद हैं। दर्शनमोहनीयके तीन और पारित्रमोहनीयके पत्रीस भेद है।
श्रायु-नरकादि गतियों में भवस्यानके कारणभूत कर्मको आयुसज्ञा है। इसके चार भेद है।
नाम-नाना प्रकार के शरीर, वचन और मन तथा जीवकी विविध अवस्थाओंके कारणभूत कर्मको नाम संज्ञा है। इसके तेरानवे भेद है।
गोत्र-नीच, उच्च सन्तान (परम्परा) के कारणभूत कर्मकी गोत्र सज्ञा है। इसके दो भेद है। जैनधर्म जाति या भाजीवका कृत नीच उच्च मेटन