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प्रस्तावना कर्मका अर्थ सेमारी जीवको क्रिया लिया गया है। आशय यह है कि संपारी जीव के प्रति समय परिस्पन्दात्मक जो भी क्रिया होती है वह फर्म कहलाता है।
यद्यपि कर्मका मुख्य अर्थ यही है तयापि इसके निमित्तमे नो पुद्गल परमाणु ज्ञानावरणादिमिावको प्राप्त होते है वे भी कर्म कहलाते है। अमृतचन्द्र पूरिने प्रवचनमारको टोकामें इसी भावका दिसझाते हुए लिखा है
"क्रिया खल्वात्मना प्राप्य नाकर्म तन्निनितप्राप्त परिणाम पुद्गलोऽपि कर्म ।' पृ० १६५ ।।
जैनदर्शनमें क्रम के मुख्यतया दो भेद किर गये हे द्रव्यम और भावकम । ये भेद जातिको अपेक्षासे नहीं किो जाकर कार्यकारणमाको अपेक्षामे किये गये हैं। महाकालरे जोव वद्ध और अशुद्ध इन्होंने कारण हो रहा है। जो पुद्गल परमाणु श्रात्मासे सम्बद्ध होकर ज्ञानाटि मात्रों का घात करते हैं और भात्मामें ऐपो यारयता लानेमें निमित्त होते हैं जिससे वह विविध शरीर भादिको धारण कर सके उन्हें द्रव्यकर्म कहते हैं। तया यात्माके जिन भावोंसे इन द्रव्य कर्मों का उपस सम्बन्ध होना है वे भावकर्म कहलाते हैं। द्रव्य कर्म की चर्चा करते हुए अकलक देवने राजवतिकमें लिखा है_ 'यथा भाजनविशेपे प्रतितानां विविवरसवीजपुष्पफलानां मदिराभावेन परिणाम. तथा पुद्गलनामपि आत्मनि स्थितानां योगकपायवशात् कर्मभावेन परिणामो वेदितव्य । ___जैसे पात्र विशेषमें डाले गये अनेक रसवाले याज, पुष्प और फलोंका मदिरारूपसे परिणमन होता है उसी प्रकार मात्मामें स्थित पुदगलों का भी योग क्या कपायके कारण कर्मरूपसे परिणमन होता है।'
योग और पायके विना पुदगल परमाणु क्रममावको नहीं प्राह