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प्रस्तावना 'जीवके मिथ्यात्व आदि परिणामोंका निमित्त पाकर पुद्गलोका कर्मरूप परिणमन होता है और पुदगल कर्मके निमित्तसे जीव भी मिथ्यात्व श्रादि रूप परिणमता है।' ___ कर्मवन्ध और मिथ्यात्व आदि की यह परम्परा अनादि काल से चली आ रही है। आगम में इसके लिये बीज और वृक्षका दृष्टान्त दिया गया है। इस परम्पराका अन्त किया जा सकता है पर प्रारम्भ नहीं। इसीसे व्यक्किकी अपेक्षा मुकिको सादि और संसारको भनादि माना है।
ससारका मुख्य कारण कर्म है-संसार और मुक्त ये जीवकी दो दशाएं हैं यह हम पहले ही बतला आये हैं। यों तो इन दोनों भवस्थानोंका कर्ता स्वय जीव है। जीव ही स्वयं संसारी होता है और जीव ही मुक । राग द्वेष धादिरूप अशुद्ध और केवलज्ञान भादिरूप शुद्ध जितनी भी अवस्थाएँ होती हैं वे सब जीवकी ही होती हैं, क्योंकि जीवके सिवा ये अन्य द्रव्यमें नहीं पाई जातीं। तथापि इनमें जो शुद्धता
और अशुद्धताका भेद किया जाता है वह निमित्त की अपेक्षासे ही किया जाता है। निमित्त दो प्रकारके माने गये हैं। एक वे जो साधारण कारणरूपसे स्वीकार किये गये हैं। 'धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन चार द्रव्योंका सद्भाव इसी रूपसे स्वीकार किया गया है। और दूसरे वे जो प्रत्येक कार्यके अलग-अलग होते हैं। जैसे घट पर्यायकी उत्पत्तिमें कुम्हार निमित्त है और जीवको अशुद्धताका निमित्त कर्म है आदि। जब तक जीवके साथ कर्मका सम्बन्ध है तभी तक ये राग, द्वेष और मोह आदि भाव होते हैं कर्मके अभावमें नहीं। इसीसे संसारका मुख्य कारण कर्म कहा गया है। घर, पुत्र, स्त्री, धन आदिका नाम संसार नहीं है। वह तो जीवकी अशुद्धता है जो कर्म के सद्भाव में ही पाई जाती है इसलिये ससार और कर्मका अन्वय व्यतिरेक सम्बन्ध है ऐसा यहाँ जानना चाहिये । जबतक यह सम्बन्ध बना रहता