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प्रस्तावना
३१ बन्धकी योग्यता-इन दोनोंका अन्य द्रव्यसे संश्लिष्ट होना इनकी योग्यता पर निर्भर है। यह योग्यता जीव और पुदगलमें ही पाई जाती है अन्य में नहीं। ऐसी योग्यताका निर्देश करते हुए जीवमें उसे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योगरूप तथा पुदगलमें उसे स्निग्ध और रूक्ष गुणरूप बतलाया है। जीव मिथ्यात्व आदिके निमित्तसे अन्य द्रव्यसे बन्धको प्राप्त होता है और पुद्गल स्निग्ध और रूक्ष गुणके निमित्तसे अन्य दिव्यसे बन्धको प्राप्त होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
जीवमें मिध्यात्वादि रूप योग्यता सश्लेपपूर्वक ही होती है इसलिये उसे अनादि माना है। किन्तु पुद्गलमें स्निग्ध या रूक्षगुणरूप योग्यता सश्लेपके विना भी पाई जाती है इसलिये वह अनादि और सादि दोनों प्रकारकी मानी गई है।
इससे जीव और पुदगल केवल इन दोनोंका बन्ध सिद्ध होता है। क्योंकि सश्लेप बन्धका पर्यायवाची है। किन्तु प्रकृतमें जीवका बन्ध विवक्षित है इसलिये आगे उसीकी चर्चा करते हैं___ जीवबन्धविचार-यों तो जीवकी बद्ध और मुक अवस्था सभी आस्तिक दर्शनोंने स्वीकार की है। बहुतसे दर्शनोंका प्रयोजन ही नियम प्राप्ति है। किन्तु जैन दर्शनने बन्ध मोक्षकी जितनी अधिक चर्चा की है उतनी अन्यत्र देखनेको नहीं मिलती। जैन आगमका वहुभाग इसकी चर्चासे भरा पड़ा है। वहाँ जीव क्यों और कबसे बँधा है, बद्ध जीवकी कैपी अवस्था होती है। बँधनेवाला दूसरा पदार्थ क्या है जिसके साथ जीवका बन्ध होता है, बन्धसे इस जीवका छुटकारा कैसे होता है, बन्धके कितने भेद हैं, बँधने के बाद उस दूपरे पदार्थका जीवके साथ कब तक सम्बन्ध बना रहता है, बँधनेवाले दूसरे पदार्थके सम्पर्कसे जीवकी विविध अवस्थाएँ कैसे होती हैं, बंधनेवाला इसरा (१) त० सू० ८-१।' (२) स्निग्धरूक्षत्वाबन्धः।-त० सू० ५-३३ ।