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सप्ततिकाप्रकरण है तबतक यह चक्र यों ही धूमा करता है। इसी यातको विस्तारसे स्पष्ट करते हुए पंचास्तिकायमें लिखा है- ।।
'जो खलु संसारत्यो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो। परिणामादो कम्मं कम्मादा होदि गदीसु गदी ।।१२८|| गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते । तेहिं दु विसयगहणं तत्तो रागो व दोसो वा ॥१२॥ जायदि जीवस्सेव भावो संसारचकवालम्मि ।
'जो जीव ससारमें स्थित है उस के राग द्वेपरून परिणाम होते है। परिणार्मोसे कर्म बंधते हैं। कर्मोंसे गतियों में जन्म लेना पड़ता है। इससे शरीर होता है। शरीरके प्राप्त होनेसे इन्द्रियाँ होती हैं। इन्द्रियोंसे विपयोंका ग्रहण होता है। विषय ग्रहणसे राग और दूपरूप परिणाम होते हैं। जो जीव संसार-चक्रमें पड़ा है उसकी ऐसी अवस्था होती है।'
इस प्रकार संसारका मुख्य कारण कर्म है यह ज्ञात होता है।
कर्म का स्वरूप-कर्मका मुख्य अर्थ क्रिया है। क्रिया भनेक प्रकारकी होती है। हमैना, खेलना, कूदना, उठना, बैठना, रोना, गाना, जाना, भाना आदि ये सब क्रियाएँ हैं। क्रिया जड़ और चेतन दोनों में पाई जाती है। कर्मका सम्बन्ध आत्मासे है अतः केवल जड़की क्रिया यहाँ विवक्षित नहीं है । और शुद्ध जीव निष्क्रिय है। वह सदा ही श्राज्ञाशके समान निर्लेप और भित्तीमें उकीरे गये चित्रके समान निष्कम्प रहता है । यद्यपि जैन दर्शन में जड़ चेतन समो पदार्थोंको उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वभाववाला माना गया है। यह स्वभाव क्या शुद्ध और क्या अशुद्ध सब पदार्थोंका पाया जाता है। किन्तु यहाँ क्रियाका अर्थ परिस्पद लिया है। परिस्पन्दात्मक क्रिया सब पदार्थों की नहीं होती। वह पुदगल और संसारी जीवके ही पाई जाती है। इसलिये प्रकृत में