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7 आत्मख्याति:-इह सकलस्यापि जीवलोकस्य संसारचक्रकोडाधिरोपितस्याश्रांतमनंतद्रव्यक्षेत्रकालभवभावपरावर्तः । - समुपकांतश्रांतरेकत्रीकृतविश्वतया महता मोहग्रहेण गोरिव बाधमानस्य असभोभिततृष्णांतकत्वेन व्यक्तांतराधेरुत्म्यो - . - सम्य मृगतृष्णायमानं विषयग्राममुपरुंधानस्य परस्परमाचार्यत्वमाचरंतो नंतशः श्रुतपूर्वानंतशः परिचितपूर्वाऽनंतशोऽनुभूत• पूर्वाचैकत्वविरुद्धत्वेनात्यंत विसंवादिन्यपि कामभोगानुयला कथा । इदं तु नित्यव्यक्ततयांतः प्रकाशमानमपि कषायचक्रण " सहेकी क्रियमाणत्वादत्यंततिरोभूतं सत्स्वस्थानात्मन्नतगा पणामात्मज्ञानामनामनाम न कदाचिदपि श्रुतपूर्व न कदाचिदपि : परिचितपूर्व न कदाचिदप्यनुभूतपूर्व च निर्मलविवेकालोकविविक्तं केवलमेकत्वं अतएकत्वस्य न सुलभत्वं ।। ४ ॥ अथ । " एतस्य उपदयते- .
अर्थ--सर्व ही लौकके कामभोगसंबंधी बंधकी कथा तो सुननेमें आई है, परिचयमैं आई है, " अनुभवमैं आई है, तातें सुलभ है । बहुरि यह भिन्न आरमाका एकपणा कबहू श्रवणमें न आया, तथा परिचय, न आया, तथा अनुभवमैं न आया, यातें केवल एक यहही सुलभ नाही है।
टीका-इस समस्त ही जीवलोकके कामभोगसंधी कथा है सो एकपणाकरि विरुद्धपणातेंF अत्यंत विसंवाद करावनहारी है, आत्माका अत्यंत बुरा करनहारी है, तोऊ अनंतबार पहले ॥ - सुनने में आई है, बहुरि अनंतवार पहलें परिचयमै आई है, बहुरि अनंतवार पहलै अनुभवमें आई
है। कैसा है जीवलोक? संसार सो ही भया चक्र, ताका क्रोड कहिये मध्य, ताविर्षे आरोपण - किया है स्थाप्या है । बहुरि कैसा है ? निरंतर अनंतवार द्रव्य क्षेत्र काल भव भावरूप परावर्त जो " पलटना तिनिकरि प्राप्त भया है भ्रमण जाकै । बहुरि कैसा है ? समस्तलोककू एकछत्रराज्यकरि के क्शी किया तिसपणाकरि महान् बडा जो भोहरूप पिशाच ताकरि गऊकीज्यों वाह्यमान है, वलध卐 " कीज्यौं वाया है । बहुरि बलात्कारकरि उठी जो तृष्णा सो ही भया रोग, ताके दाहपणाकरि .. 5 प्रगट भई है अंतरंगविर्षे पीडा जाकै। बहुरी मृगकीज्यौं तृष्णाकरि जैसे भाडलीपरी दौडे, तैसें । - उछलि उछलि अर इंद्रियनिका दाह विषयके ठिकाणेकू आपणे करे है । बहुरि कैसा है ? परस्पर ।
आचार्यपणाकू आचरता है, वह वाकू कहिकरि अंगीकार करावे है। यातें कामभोगसंबंधी कथा ॥ - तौ सर्वकै सुलभ है । बहुरि यह भिन्न आमाका एकपणा है सो सदा प्रगटपणाकरि अंतरंगविः ॥
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