________________
४०२
पउमचरियं
भणिऊण वयणमेयं, साहम्मियवच्छला तओ जक्खा । परमेट्टिसंपउत्ता, गया य निययाई ठाणा ॥ ४९ ॥ एवं निणिन्दवरसासणभत्तिमन्ता, उच्छाहनिच्छियमणा इह जे मणुस्सा ।
विज्जाएँ किं व सुहसाहणसंपयाए, सिद्धालयं पि विमलं खलु जन्ति धीरा ।। ५० ।।
॥ इयं पउमचरिए सम्मद्दिट्ठिदेवकित्तणं नाम सत्तसठ्ठे पव्वं समत्तं ॥
६८. बहुरूवासाहणपव्वं
धयछत्तसमुज्जलसिरीया ॥ " जलगाहसमाउलं भीया ॥ संपत्ता गिरिगुहायार ॥ ६ ॥
नाऊण य उवसमियं, नक्खवई अङ्गओ गयवरिन्दं । किक्विन्धिदण्डनामं, आरूढो दप्पियामरिसो ॥ १ ॥ लङ्कापुरी पयट्टा, सुहडा कुमुइन्दणीलमाईया । नाणा उहगहियकरा, नाणाविहवाहणारूढा ॥ २ ॥ कुङ्कुमकयङ्गराया, ' नाणालंकारभूसियसरीरा । विसमाहयतूररवा, कुमारसीहा बला चण्डा || ३ || अह ते वाणरसुहडा, अङ्गयपमुहा बलेण परिपुण्णा । लङ्कापुरिं पविट्टा, भेसन्ता नयरजणं, दहमुहभवणङ्गणं समणुपत्ता । दट्टण कोट्टिमतलं, अचलन्तनयणरूवाईं तत्थ नाऊण कोट्टिमकयाई । रावणभवणदुवारं, तो इन्दनीलकोट्टिम-तलम्मि सीहा करालमुहनन्ता । दट्टण वाणरा ते, जाया य पलायणुज्जुत्ता ॥ ७ ॥ परिमुणियकारणेणं, नियत्तिया अङ्गएण दुक्खेहिं । पुणरवि पविसन्ति घरं, सबत्तो दिन्नदिट्टीया ॥ ८ ॥ फलिहमयविमलकुड्ड े, आगासं चेव मन्नमाणा ते । कढिणसिलावडियसिरा, पडिया बहवे पवयनोहा ॥ ९॥ परिफुडियन्नु - कोपर, अइगाढं वेयणापरिग्गहिया । पविसन्ति जाणियपहा, अन्नं कच्छन्तरं भीया ॥ साधर्मियोंके ऊपर वात्सल्य रखनेवाले और परमेष्ठीमें श्रद्धालु वे यक्ष अपने अपने स्थान पर चले गये । (४६) इस तरह जो मनुष्य इस लोकमें जिनेन्द्रके शासनमें भक्तियुक्त, उत्साहशील एवं निश्चित मनवाले होते हैं वे धीर सुख-सुविधा प्रदान करनेवाली विद्या तो क्या विमल मोक्षमें भी जाते हैं । (५०)
1
१० ॥
॥ पद्मचरितमें सम्यग्दृष्टिदेवका कीर्तन नामक सड़सठवाँ पर्व समाप्त हुआ ||
[ ६७.४९
६८. बहुरूपा विद्याकी साधना
यक्षपति शान्त हुआ है यह जानकर दर्प एवं श्रमर्षसे युक्त अंगद किष्किन्धदण्ड नामक हाथी पर सवार हुआ । (१) हाथमें नाना प्रकारके आयुध लिये हुए तथा नानाविध वाहन पर आरूढ़ कुमुद, इन्द्रनील आदि सुभट लंकापुरीकी ओर चले । (२) कुकुमका लेप किये हुए, नाना अलंकारोंसे विभूषित शरीरवाले तथा बली और प्रचण्ड वे कुमारवर एक साथ बजाये जानेवाले वाद्योंकी ध्वनिसे गीयमान थे । (३) ध्वज एवं छत्रके कारण समुज्ज्वल कान्तिवाले तथा सेनासे परिपूर्ण वे अंगद आदि वानरसुभट लंकामें प्रविष्ट हुए। (४) नगरजनों को डराते हुए वे रावणके महलके आँगन में जा पहुँचे। वहाँ पानी और प्राहोंसे भरी हुई रत्नमय भूमिको देखकर वे भयभीत हुए । (५) उस रत्नमय भूमिपर बनाई गई अचल नेत्रोंवाली आकृतियोंको जानकर वे रावणके भवनके पर्वतकी गुफा जैसे आकारवाले द्वारके पास पहुँचे । (६) वहाँ इन्द्रनीलमणिके बने हुए भूमितल में भयंकर यंत्रोंसे युक्त मुखवाले सिंहों को देखकर वे वानर पलायनके लिए उद्यत हुए। ( ७ ) कारणसे अवगत अंगदके द्वारा कठिनाईसे वापस लौटाये गये उन वानर- सुभटोंने चारों ओर दृष्टि रखकर पुनः भवनमें प्रवेश किया । (८) स्फटिकमय स्वच्छ दीवारको आकाश माननेवाले उन वानर-योद्धाओं के सिर कठोर शिलाके साथ टकराये और बहुतसे तो नीचे गिर पड़े। (६) घुटने और कोहनी भग्न होनेके कारण अत्यधिक वेदनासे युक्त और भयभीत वे मार्गसे अवगत होनेपर दूसरे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org