Book Title: Paumchariyam Part 2
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 223
________________ ५७८ पउमचरियं २१ ॥ २२ ॥ उवणीयं चिय गेण्हइ, तं धणुयं लक्खणं ठविय अङ्के । ताहे कयन्तसरिसो, देइ रहू रिवुबले दिहिं ॥ एयन्तरम्मि नाओ, आसणकम्पो सुराण सुरलोए । माहिन्दनिवासीणं, तत्थ नेडाऊ कयंताणं ॥ अवहिविसएण दट्टं, देवा सोगाउरं पउमनाहं । तं चेव कोसलपुरिं, पडिरुद्धं वेरियबलेणं ॥ २३ ॥ सरिऊण सामियगुणे, समागया कोसलापुरिं देवा । वेढन्ति अरिबलं तं समन्तओ सेन्ननिवहेणं ॥ २४ ॥ दहूण सुरबलं तं भीया विज्जाहरा वियलियत्था । नासेन्ति एकमेकं लङ्घन्ता निययपुरहुत्ता ॥ २५ ॥ पत्ता निययपुरं ते जंपन्ति बिहीसणस्स कह वयणं । पेच्छामो गयलज्जा, विभग्गमाणा खलसहावा ? ॥ २६ ॥ अह ते इन्दइतणया, सुन्दसुया चेव जायसंवेगा । रइवेगस्स सयासे, मुणिस्स दिक्खं चिय पवन्ना ॥ २७ ॥ सत्तभयम्म ववगए, सुरपवरा तस्स सन्नियासम्मि । जणयन्ति सुक्करुक्खं, रामस्स पबोहणट्टम्मि ॥ २८ ॥ वसहकलेवरजुत्तं, सीरं काऊण तत्थ य र्जडाऊ । उच्छहइ वाहिउ जे, पक्खिरंइ य बीयसंघायं ॥ २९ ॥ 'रोवइ य पउमसण्ड, सिलायले पाणिएण सिञ्चन्ता । पुणरवि चकारूढो, पीलइ सिकया डाउसुरो ॥ एयाणि य अन्नाणि य, अत्थविरुद्धाइ तत्थ कज्जाई । कुणमाणा सुरपवरा, ते पुच्छर हलहरो दो वि ॥ भो भो ! सुकतरुवरं किं सिञ्चसि मूढ ! सलिलनिवहेणं । वसहकलेवरजुत्तं, सीरं नासेसि बिज्जसमं ॥ सलिले मन्थिज्जन्ते, सुट्टु वि ण य मूढ होइ णवणीयं । सिकयाऍ पीलियाए, कत्तो च्चिय जायए तेल्लं न होइ कज्जसिद्धी, एव कुणन्ताण मोहगहियाणं । नायइ सरीरखेओ, नवरं विवरीयबुद्धीणं ॥ तं भइ कयन्तसुरो, तुमवि जीवेण वज्जियं देहं । कह वहसि अपरितन्तो, नेहमहामोहगहगहिओ ? ॥ ३५ ॥ ३० ॥ ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ [ ११३. २१ यम सरीखी दृष्टि डाली । (२१) उस समय देवलोकमें माहेन्द्रकल्प निवासी जटायु और कृतान्तवक्त्र देवोंके आसन काँप उठे । (२२) अवधिज्ञान से देवोंने शोकातुर रामको तथा शत्रुके सैन्यद्वारा घिरी हुई साकेतपुरीको देखा । स्वामी गुणों को याद करके वे देव साकेतपुरीमें आये और शत्रुकी सेनाको सैन्यसमूह द्वारा चारों ओरसे घेर लिया । (२४) उस देवसैन्यको देखकर भयभीत हो अस्त्रोंका त्याग करनेवाले विद्याधर एक दूसरेको लाँघते हुए अपनी नगरी की ओर भागे । (२५) अपने नगरमें पहुँचकर वे कहने लगे कि निर्लज्ज, मानंद्दीन और दुष्ट स्वभाववाले हम विभीषणका मुख कैसे देख सकेंगे ? (२६) इसके बाद इन्द्रजीत और सुन्दके उन पुत्रोंने वैराग्य उत्पन्न होने पर रतिवेग मुनिके पास दीक्षा ली । (२७) शत्रुओंका भय दूर होने पर देवोंने रामके प्रबोधके लिए उनके पास एक सूखा पेड़ पैदा किया । (२८) बैलोंके शरीरसे जुते हुए हलका निर्माण करके जटायु उसे चलानेके लिए उत्साहित हुआ और बीजसमूह बिखेरने लगा । (२६) जटायुदेव शिलातल पर पद्मवन बोकर उसे पानीसे सींचने लगा। फिर चक्की में बालू पीसने लगा । (३०) इन तथा अन्य निरर्थक कार्य करते हुए उन दोनों देवोंसे रामने पूछा कि अरे मूढ़ ! तुम पानीसे सूखे पेड़ को क्यों सींचते हो ? बैलोंके शरीरोंसे युक्त हलको भी तुम बीजके साथ क्यों नष्ट करते हो ? (३१-३२) अरे मूर्ख ! पानीको खूब मथने पर भी मक्खन नहीं निकलेगा। बालू को पीसने पर कैसे तेल निकलेगा ? (३३) ऐसा करते हुए खको कार्यसिद्धी नहीं होती किन्तु विपरीत बुद्धिवालोंको केवल शरीरखेद ही होता है । (३४) ३१ ॥ ३२ ॥ इस पर उनसे कृतान्तदेवने कहा कि स्नेह और महामोहरूपी ग्रहसे ग्रस्त तुम भी सर्वथा खिन्न हुए बिना जीवरहित शरीरको क्यों धारण करते हो ? (३५) लक्ष्मणके उस शरीरका आलिंगन करके रामने कहा कि अमंगल करते हुए तुम १. धणुवं - - प्रत्य• । २. जडागीकयं ० - प्रत्य० । ३. ०पुरं, प० - प्रत्य• । ४. ०म्तओ ६. जडागी प्रत्य० । त०- प्रत्य० । ११. ७. ८. • रई बी० - प्रत्य० । य तुम्ह क० प्रत्य० । Jain Education International पियय सेण्णेणं - प्रत्य० । ५. यपुरहु - प्रत्य० । रोयति - प्रत्य० । ६. जडागिसु० प्रत्य० । १०. • विहूणाई For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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