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पसमचरियं
[११२.१७ नेरएमु य नं पोय, कलिलं बोवेण पावसत्तेणं । तं जयइ पिण्डियं चिय, सयंभुरमणस्स वि जलोह ॥ १८ ॥ पुत्तो पिया रहुत्तम !, नायइ धूया वि परभवे जणणी । बन्धू वि होई, वइरी, संसारठिई इमा सामि ! ॥१९॥ रयणप्पहाइय नं, दुक्खं जीवेण पावियं बहुसो । तं निसुणिऊण मोहं, को न चयइ उत्तमो पुरिसो ? ॥२०॥ तुम्हारिसा वि राहव !, उबग्गिज्जन्ति नइ वि मोहेणं । का सन्ना हवइ पहू !, धीरत्ते पाययनराणं ! ॥ २१ ॥
एयं निययसरीरं, जुत्तं मोत कसायदोसावासं ।
किं पुण अन्नस्स तणू, न य उज्झसि देव सुविमलं करिय मणं? ॥ २२ ॥ ॥ इइ पउमचरिए लक्खणविओगबिहीसणवयणं नाम बारसुत्तरसय पव्वं समत्तं ॥
११३. कल्लाणमित्तदेवागमणपव्वं
सुग्गीवमाइएहिं, भडेहिं नमिऊण राहवो भणिओ । सक्कारेहि महाजस!, एयं लच्छीहरस्स तणुं ॥ १ ॥ तो भणइ सकलुसमणो, रामो अचिरेण अज तुब्भेहिं । माइ-पिइ-सयणसहिया, डज्झह अहियं खलसहावा ॥ २॥ उद्देहि लच्छिवल्लह !, अन्नं देसं लहुँ पगच्छामो । जत्थ इमं अइकडुयं, खलाण वयणं न य सुणामो ॥ ३ ॥ निब्भच्छिऊण एवं, खेयरवसहाऽइसोगसंतत्तो । लच्छीहरस्स देहं आढत्तो चुम्बिउ रामो ॥ ४ ॥
अह सो अवीससन्तो, ताहे लच्छीहरस्स तं देहं । आरुहिय निययखन्धे, अन्नद्देसं गओ पउमो ॥ ५॥ आदिके रसका जो पान किया है उसका यदि ढेर लगाया जाय तो वह स्वयम्भूरमण सागरकी जलराशिको भी मात कर दे । (१८) हे रघूत्तम ! परभवमें पुत्र पिता और पुत्री माता हो सकती है तथा भाई भी वैरी हो सकता है। हे स्वामी ! संसारकी यह स्थिति है। (१६) रत्नप्रभा आदि नरकभूमियोंमें जीवने जो अनेक बार दुखः पाया है उसे सुनकर कौन उत्तम पुरुष मोहका त्याग न करेगा ? (२०) हे राघव ! यदि आपके सरीखे भी मोहवश उद्विग्न हों तो फिर, हे प्रभो ! प्राकृत जनोंकी धीरजके बारेमें कहना ही क्या ? (२१) कपाय एवं दोषोंके आवास रूप इस शरीरका त्याग करना उपयुक्त है। तो फिर, हे देव ! मनको अतिनिर्मल करके दूसरेके शरीरका त्याग क्यों नहीं करते ? (२२)
॥ पद्मचरितमें लक्ष्मणके वियोगमें विभीषणका उपदेश नामक एक सौ बारहवाँ पर्व समाप्त हुआ।
११३. मित्र देवोंका आगमन सुग्रीव आदि सुभटोंने रामको प्रणाम कर कहा कि, हे महायश! लक्ष्मणके इस शरीरका संस्कार करो। (१) तब कलुषित मनवाले रामने कहा कि, आज तुम दुष्ट स्वभाववाले माता, पिता तथा स्वजनोंके साथ अपने आपको एक दम जला डालो। (२) हे लक्ष्मण ! तुम उठो। जल्दी ही हम दूसरे देशमें चले जायँ जहाँ दुष्टोंका ऐसा अत्यन्त कडुआ वचन सनना नहीं पड़ेगा। (३) खेचर राजाओंका इस तरह तिरस्कार करके शोकसे अतिसन्तप्त राम लक्ष्मणके शरीरको चूमने लगे। (४) इसके पश्चात् अविश्वास करके लक्ष्मणके उस शरीरको अपने कन्धे पर रखकर अन्य प्रदेशमें चले गये।
१.णिरएम जं च पीयं जीवेणं कलमलंततत्तेण । तं जिणइ-प्रत्य० । २. या उ जायइ, राहव! धूया-प्रत्य० । ३.०३ वेरी--प्रत्य०। ४. .हाइदुक्खं, जीवेणं पावियं तु इह बहुसो--प्रत्यः । ५. यदोससयं । किं--प्रत्यः। ६. रामो तुम्भेहिं भज अचिरेणं । मा. प्रत्य० । ७. स्स पई, आ०-प्रत्य० । ८. अन्नं देसं गओ रामो-प्रत्या।
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