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११८.२४ ]
११८. पउमणिव्वाणगमणपव्वं
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सो एवमाइयाई, दठ्ठे दुक्खाईं नरयवासीणं । कारुण्ण जणियहियओ, सोयइ परमं सुखरिदो ॥ ९ ॥ सो अग्गिकुण्डमज्झाउ निग्गयं लक्खणं सुरवरिन्दो । पेच्छइ तालिज्जन्तं, बहुएहि य नरयपालेहिं ॥ १० ॥ सो तेहि तस्स पुरओ, करवत्त - ऽसिवत्त - जन्तमादीहिं । भयविहलवेवियङ्गो, नाइज्जइ जायणसएहिं ॥ दिट्ठो लङ्काहिवई, सुरेण भणिओ य तत्थ संबुको । रे पाव ! पुत्रजणियं, अज्ज वि कोवं न छड्डेसि ॥ तिबकसाय व सगया, अणिवारियइन्दिया किवारहिया । ते एत्थ नरयलोए, अणुहुन्ति अणेयदुक्खाई ॥ सोऊण वि नेरइयं, दुक्खं जीवस्स नायइ भवोहे । किं पुण तुज्झ न जायइ, भयं इहं विसहमाणस्स ! सोऊण वयणमेयं, संबुको उवसमं समणुपत्तो । ताहे लङ्काहिवई, लक्खणसहियं भणइ देवो ॥ मोत्तूण भउधेयं, मह वयणं सुणह ताव वीसत्थां । तुब्भे हि विरइ रहिया, संपत्ती एरिसं दुक्खं ॥ विविमाणारूढं, ते रावण-लक्खणा सुरं ददु । पुच्छन्ति साहसु फुडं, को सि तुमं आगओ एत्थ ? सो ताण साहइ सुरो, एत्तो पउमाइयं जहावत्तं । पडिबोहकारणट्टे, निययं च समागमारम्भं ॥ नियय चिय वित्तन्तं सुणिउं ते तत्थ दो वि पडिबुद्धा । सोएन्ति दीणवयणा, अप्पाणं लज्जियमईया ॥ धी ! किं न कओ धम्मो, तइया अम्हेहिं माणुसे नम्मे ? । जेणेह दुहावत्था, संपता दारुणे नरए ॥ धन्नो सि तुमं सुरवर !, जो परिचइऊण विसयसोक्खाइं । निणवरधम्माणुरओ, संपत्तो चेव देविद्धिं ॥ तो सो कारुणिओ, नंपइ मा भाह दो वितुंब्भे हं । हक्खुविऊण इमाओ, नरगाओ नेमि सुरलोयं ॥ २२ ॥ आबद्धपरियरोसो, हक्खुविऊणं तओ समाढत्तो । विलियन्ति अइदुगेज्झा, ते अणलहओ व नवनीओ ॥२३॥ सबोवाएहि नया, घेत्चूण न चाइया सुरिन्देणं । ताहे ते नेरइया, भणन्ति देवं मुयसु अहं ॥ २४ ॥
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इस पर उस कारुणिकने कहा कि तुम दोनों मत डरो। इस नरक में से जाता हूँ । (२२) तब कमर कसकर वह उन्हें ऊपर उठाने लगा किन्तु अत्यन्त विलीन हो गये । (२३) सब उपायोंसे भी देव जब उन्हें ग्रहण न कर सका १. छड्डेहि -- प्रत्य• । २. तुम्हेहिं । ६० मु० । ३. ० वं सुणसुमु० ।
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नरकवासियोंके ऐसे दुःख देखकर हृदयमें aroraभाव उत्पन्न होनेसे वह देवेन्द्र अत्यन्त शोक करने लगा । (६) उस सुरेन्द्रने वहुतसे नरकपालों द्वारा अग्निकुण्डमें से निकले हुए लक्ष्मणको पीटे जाते देखा । (१०) उन करवत, असिपत्र तथा यंत्र आदि सैकड़ों यातनाओंके कारण भयसे विह्वल और काँपते हुए शरीरवाला वह उसके आगे गिड़गिड़ा रहा था । ( ११ ) देवने वहाँ लंकाधिपतिको देखा । फिर शंबूकसे कहा कि, रे पापी ! पूर्वजन्ममें उत्पन्न कोपको आज भी तू क्यों नहीं छोड़ता ? ( १२ ) जो तीव्र कषायोंके वशीभूत होते हैं, इन्द्रियों का निग्रह नहीं करते और दयाहीन होते हैं वे यहाँ नरकलोकमें अनेक दुःखों का अनुभव करते हैं । (१२) नरक सम्बन्धी दुःखके बारेमें सुनकर संसार में जीवको भय पैदा होता है । यहाँ दुःख सहते हुए तुझको भय नहीं होता ? (१४) यह वचन सुनकर शंबूकने शान्ति प्राप्त की । तब लक्ष्मणके साथ लंकाधिपति रावणसे देवने कहा कि भय एवं उद्वेगका त्याग करके विश्वस्त हो तुम मेरा कहना सुनो। विरतिरहित होनेसे तुमने ऐसा दुःख पाया है । (१५-६ ) दिव्य विमानमें आरूढ़ उस देवको देखकर रावण और लक्ष्मणने पूछा कि यहाँ आये हुए तुम कौन हो, यह स्पष्ट कहो । (१७) तब देवने उन्हें राम आदिका सारा वृत्तान्त और प्रतिबोधके लिए अपने आगमन के बारेमें कहा । (१८) अपना वृत्तान्त सुनकर वे दोनों वहाँ प्रतिबुद्ध हुए । दीनवचन और मनमें लज्जित वे स्वयं अपने लिए शोक करने लगे कि हमें धिक्कार है उस समय मनुष्य जन्म में हमने धर्म क्यों नहीं किया ? इसी कारण इस दारुण नरकमें हमने दुःखको अवस्था प्राप्त की है । (१६-२० ) हे सुवर ! तुम धन्य हो कि विषय सुखोंका परित्याग करके जिनवरके धर्म में अनुरत हो तुमने देवकी ऋद्धि पाई है । (२१)
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निकालकर में तुम्हें दुर्गाह्य वे आगमें तब उन नारकियोंने
देवलोक में ले मक्खनकी तरह देवसे कहा कि
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