________________
११८. पउमणिव्वा णगमणपव्वं
एयं विसुद्धललिय क्खरहेउजुत्तं अक्खाणएसु विविहेसु निबद्धअत्थं । नासेइ दुग्गइपहं' खलु निच्छएणं, रामारविन्दचरियं तु सुयं समत्थं ॥ १०१ ॥ एयं वीरजिणेण रामचरियं सिद्धं महत्थं पुरा, पंच्छाऽऽखण्डलभूइगा उ कहियं सोसाण धम्मासयं । भूओ साहुपरंपराएँ, सयलं लोए ठियं पायडं, एचाहे विमलेण सुत्तसहियं गाहानिबद्धं कयं ॥ १०२ ॥ पञ्चेव य वाससया, दुसमाए तीसवरिससंजुत्ता । वीरे सिद्धिमुवगए, तओ निबद्ध इमं चरियं ॥ १०३ ॥ हलहर - चक्कहराणं, समयं लङ्काहिवेण जं वत्तं । विसयामिससत्ताणं, इत्थिनिमित्तं रणं परमं ॥ १०४ ॥ बहुजुवइसहस्सेहिं, न य पत्तो उवसमं मयणमूढो । सो विज्जाहरराया, गओ य नरयं अणिमियप्पा ॥ १०५ ॥ जोऽणेयपणइणीहिं, लालिज्जन्तो विं न य गओ तिति । कह पुण अन्नो तुहिं, वैच्चिहिइ सुथोवविलयाहिं ? ॥ १०६॥ जे विसयसुहासत्ता, पुरिसा तव नियम -संजमविणा । ते उज्झिऊण रयणं, गेण्हन्ति हु कागिणिं मूढा ॥ १०७॥ एयं वेरनिमित्तं, परनारीसंसियं सुणेऊणं । होह परलोयकङ्क्षी, परविलयं चैव वज्जेह ॥ १०८ ॥ सुकयफलेण मणुसो, पावइ ठाणं सुसंपयनिहाणं । दुकयफलेण य कुगईं, लहइ सहावो इमो लोए ॥ न य देइ कोइ कस्सइ, आरोग्गघणं तहेव परमाउं । जइ देन्ति सुरा लोए, तह वि हु किं दुक्खिया बहवे ? ॥ काम-रथ-धम्म-मोक्खा, एत्थ पुराणम्मि वष्णिया सबे । अगुणे मोत्तूण गुणे, गेण्हह जे तुम्ह हियजणणे ॥ १११ ॥ बहुए किं व कीरइ, अबो भणियवएण लोयम्मि ? । एकपयम्मि वि वुज्झह, रमह सया जिणवरमयम्मि ॥ ११२ ॥
१०९ ॥
११० ॥
११८. ११२ ]
विशुद्ध और सुन्दर अक्षरों व हेतुओंसे युक्त तथा विविध आख्यानोंसे जिसमें अर्थ गूँथा गया है ऐसे इस समस्त रामचरितका श्रवण अवश्य ही दुर्गति के मार्गको नष्ट करता है । (१०१)
५९७
वीर जिनेश्वरने पहले महान अर्थवाला यह रामचरित कहा था । बादमें इन्द्रभूति गौतमने धर्मका आश्रयभूत यह चरित शिष्यों से कहा । पुनः साधु-परम्परासे लोकमें यह सारा प्रकट हुआ, अब विमलने सुन्दर वचनोंके साथ . इसे गाथाओं में निबद्ध किया है । (१०२) इस दुःषम कालमें महावीरके मोक्षमें जानेके बाद पाँच सौ तीस वर्ष व्यतीत होने पर यह चरित लिखा है । (१०३)
विषय रूपी मांस में आसक्त हलधर और चक्रधरका लंकाधिपके साथ स्त्रीके लिए महान् युद्ध हुआ । (१०४) कामसे मोहित उस अनियमितात्म विद्याधर राजाने अनेक हजार युवतियोंसे शान्ति न पाई और नरकमें गया । (१०५) यदि अनेक स्त्रियों द्वारा स्नेहपूर्वक पालन किये जाने पर भी उसने तृप्ति न पाई, तो फिर दूसरा बहुत थोड़ी स्त्रियोंसे कैसे सन्तोष प्राप्त करेगा ? (१०६) जो मूर्ख पुरुष तप, नियम एवं संयमसे विहीन और विषयोंमें आसक्त होते हैं वे मानो रत्नका त्यागकर कौड़ी लेते हैं । (१०७) परनारीके आश्रयसे होनेवाले वैरके इस निमित्तको सुनकर परलोक (मोक्ष) के आकांक्षी बनो और दूसरेका विनय करो । ( १२८) मनुष्य पुण्यके फल स्वरूप सुसंपत्तियों की निधि पाता है और पापके फलस्वरूप दुर्गति पाता है । जगत्का यह स्वभाव है । (१०६) कोई किसीको आरोग्य, धन तथा उत्तम आयु नहीं देता । यदि देव लोगों को ये सब देते तो बहुत लोग दुःखी क्यों हैं ? (११०) काम, अर्थ, धर्म और मोक्ष - ये सब इस पुराण में कहे गये हैं । दुर्गुणोंको छोड़कर गुणों को, जो तुम्हारे हितजनक हैं, ग्रहण करो (१११ ) अरे ! लोकमें बहुत कहकर क्या किया जाय ? एक शब्द में ही तुम समझ जाओ। जिनवरके धर्ममें तुम सदा रमण
१. ० पहं इह नि० प्रत्य० । २. यं विमलं स० - प्रत्य० । ३. पच्छा गोयमसामिणा उ कहियं सिस्साण प्रत्य० । ४. ०न्तो य नमु० । ५. वच्चिहइ — प्रत्य० । ६. एयं वइर० प्रत्य० ७. ०ए ताहे किं प्रत्य०८. •म्मि गिव्हिया - प्रत्य• । ६. ० व्वयम्मि लो० - प्रत्य• ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org