Book Title: Paumchariyam Part 2
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 241
________________ पउमचरियं [११८.८६ पन्नरस सहस्साई, वरिसाण तयाऽऽसि आउयं हलिणो । सोलस चावाणि पुणो, उच्चत्तं चेव नायचं ॥ ८६ ॥ पेच्छह बलेण महया, जिणिन्दवरसासणे घिई काउं । जम्म-जरा-मरणरिवू, पराजिया धीरसत्तेणं ॥ ८७ ।। निस्सेसदोसरहिओ, नाणाअइसयविभूइसंजुत्तो । केवलकिरणुज्जलिओ, विभाइ सरए ब दिवसयरो ॥ ८८ ॥ आराहिऊण धीरो, जिणसमयं पञ्चवीस वरिसाई। आउक्खयम्मि पत्तो, पउमो सिवसासयं ठाणं ॥ ८९ ।। विगयभवहेउगं तं, अणगारं सुद्धसीलसम्मत् । सबायरेण पणमह, दुक्खक्खयकारयं रामं ॥ ९० ॥ पुवसिणेहेण तया, सीयादेवाहिवेण परिमहियं । परमिड्डिसंपउत्तं, पणमह रामं मणोरामं ॥ ९१ ।। इक्खागवंसतिलयं, इह भरहे अट्ठमं तु बलदेवं । तं नमह णेयभवसयसहस्समुक्कं सिवपयत्थं ॥ ९२ ॥ एयं हलहरचरियं, निययं जो सुणइ सुद्धभावेणं । सो लहइ बोहिलाभ, बुद्धि-बलाऽऽउं च अइ परमं ॥९॥ उज्जयसत्थो वि रिवू , खिप्पं उबसमइ तस्स उवसग्गो । अजिगई चेव पुण्णं, जसेण समयं न संदेहो ॥१४॥ रज्जरहिओ वि रज्ज, लहइ धणत्थी महाधणं विउलं । उवसमइ तक्खणं चिय, वाही सोमा य होन्ति गहा ॥९५॥ महिलत्थी वरमहिलं, पुत्तत्थी गोत्तनन्दणं पुत्तं । लहइ परदेसगमणे, समागमं चेव बन्धूर्ण ॥ ९६ ॥ दुव्भासियाई दुच्चिन्तियाई दुचरियसयसहस्साई । नासन्ति पउमकित्तणकहाएँ दूरं समत्थाई ।। ९७ ॥ जं पि य जणस्स हियए, अवट्टियं कारणं अइमहन्तं । तं तस्स निच्छएणं, उवणमइ सुहाणबन्धणं ॥ ९८ ॥ एवं धम्मोवाया, सिट्ठा तव-नियम-सीलमाईया । तित्थयरेहिं महाजस !, अणन्तनाणुत्तमधरेहिं ॥ ९९ ॥ निययं करेह भत्ति, जिणाण मण-वयण-कायसंजुत्ता । जेणऽट्टकम्मरहिया, पावह सिद्धिं सुवीसत्था ॥ १०॥ हलधर रामकी आयु पंद्रह हजार वर्षकी थी। उनकी ऊँचाई सोलह धनुषकी जानो । (८६) देखो ! जिनेन्द्रवरके शासनमें दृढ़ श्रद्धा रखकर धीरसत्त्व रामने बड़े भारी बलसे जन्म, जरा एवं मरणरूपी शत्रुओंको पराजित किया। (८७) समग्र दोपोंसे रहित, ज्ञानातिशयकी विभूतिसे संयुक्त और केवलज्ञानरूपी किरणों से प्रकाशित वे शरत् कालमें सूर्यकी भाँति शोभित हो रहे थे। (ER) जिनसिद्धान्तकी पचीस वर्ष तक आराधना करके आयुका क्षय होने पर धीर रामने शिव और शाश्वत स्थान प्राप्त किया । (८६) भवका हेतु जिनका नष्ट हो गया है ऐसे अनगार, शुद्ध शील एवं सम्यक्त्ववाले तथा दुःखोंके क्षयकारक उन रामको सम्पूर्ण आदरसे वन्दन करो। (६०) उस समय पूर्वके स्नेहवश सीतेन्द्र द्वारा परिपूजित, परम ऋद्धिसे युक्त और सुन्दर रामको वन्दन करो। (९१) इक्ष्वाकु वंशमें तिलकरूप, इस भरतक्षेत्रमें आठवें बलदेव, अनेक लाखों भवोंके बाद मुक्त तथा शिवपद (मोक्ष ) में स्थित उन्हें प्रणाम करो । (१२) पहिर) हलधर रामके इस चरितको जो शुद्ध भावसे सुनता है वह सम्यक्त्व और अत्युत्कृष्ट बुद्धि, बल एवं आयु प्राप्त करता है। (६३) इसके सुननेसे शस्त्र उठाये हुए शत्रु और उनका उपसर्ग शीघ्र ही उपशान्त हो जाता है। और यशके साथ ही वह पुण्य अर्जित करता है इसमें संदेह नहीं। (६४) इसके सुननेसे राज्यरहित व्यक्ति राज्य ; और धनार्थी विपुल एवं उत्तम धन प्राप्त करता है; व्याधि तत्क्षण शान्त हो जाती है और ग्रह सौम्य हो जाते हैं। (६५) स्त्रीकी इच्छा करनेवाला उत्तम स्त्री और पुत्रार्थी कुलको आनन्द देनेवाला पुत्र पाता है तथा परदेशगमनमें भाईका समागम होता है। (६६) दुर्भाषित, दुश्चिन्तित ओर लाखों दुराचरित-ये सब रामकी कीर्तनकथासे एकदम नष्ट हो जाते हैं (६७)। मनुष्य के हृदय में जो कोई भी अतिमहान् प्रयोजन रहा हो तो वह पुण्यके अनुबन्धसे अवश्य ही प्राप्त होता है। (६८) हे महायश! इस प्रकार अनन्त और उत्तम ज्ञान धारण करनेवाले तीर्थकरोंने तप, नियम, शील आदि धर्मके उपाय कहे हैं। (EE) अतः तुम नित्य ही जिनवरोंकी मन, वचन और कायासे संयत होकर भक्ति करो, जिससे आठ कोसे रहित हो निःशंकभावसे तुम सिद्धि पाओगे। (१००) १. सत्तरस-मु० । २. वीरो-प्रत्य० । ३. भयहे-मु०।४.०कारणं रा०-मु.। ५.०वभय-प्रत्य। ६. जो पढइ सुद्ध-मु०, जो पढइ परमभावेणं-प्रत्यः । ७.०इ सो य पु०-प्रत्य। ८ सरिसं न-मुः। ६. धणट्ठी धणं महाविउलं-प्रत्य० । १०. ०हिं भगवया, अ०-प्रत्य० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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