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११८. ८५ ]
११८. पउम रिव्वाणगमणपव्वं
लक्खणपगयं भणिज्जन्तं ॥७७॥ केई दधम्मसंजुत्तो
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तुहमवि इह भरहे खलु, चइऊणं अच्चुयाउ कप्पाओ । चोद्दसरयणाहिव ई, चकहरो होहिसि निरुत्तं ॥ ७१ ॥ ते चेत्र सुरा चइया, दोण्णि वि तुह नन्दणा भवहन्ति । इन्दुर्रह - भोयरहा, अमरकुमारोवमसिरीया ॥ ७२ ॥ परनारिवज्जणेणं, वएण एक्केण सो हु दहवयणो । जाओ चिय इन्दुरहो, सम्मत्तपरायणो धीरो ॥ ७३ ॥ सो चेव य इन्दुरहो, लभिऊण भवा इमा सुराईया । पच्छा होहइ अरहा, समत्थ तेलोक्कपरिमहिओ || ७४ ॥ अह सो वि चक्कवट्टी, रज्जं रयणत्थले पुरे काउं । होइ तवोचलेणं, अहमिन्दो वेजयन्तग्मि ॥ ७५ ॥ सो हु तुमं सग्गाओ, चइओ अरहस्से तस्स गणपवरो । होऊण तिहुयणग्गं, सिद्धिसुहं चैव पाविहिसि ॥ ७६ ॥ एसो ते परिकहिओ, दसाणणो सह तुमे सुराहिवई ! । एतो सुणाहि पुणरवि, जो सोऽयं भोयरहो, चक्कहरसुओ तवप्पभावेणं । भमिऊण उत्तमभवे, पुक्खरं दीवविदेहे, पउमपुरे लक्खणो उ चक्कहरो । होहिइ तित्थयरो पुण, तत्थेव भवे तियसणाहो ॥ सत्तसु वरिसेसु जिणो, काऊण असेसदोससंघारं । सुर-असुरनमियचलणो, पाविहिर अणुत्तरं ठाणं एवं केवलिकहियं भविस्सभवसंकहं सुणेऊणं । नाओ संसयरहिओ, पडिइन्दो भावणात्तो ॥ नऊ रामदेवं, ताहे सबायरेण पुणरुत्तं । अभिवन्दइ सुरपवरो, निणवरभवणाई विविहाई ॥ नन्दीसराइयाईं, अभिवन्देऊण चेइयहराई । कुरुवं चिय संपत्तो, पेच्छइ भामण्डलं देवो ॥ संभासिऊण पयओ, संबोहिय भायरं सिणेहेणं । विबुहाहिवो खणेणं, संपत्तो अच्चुयं कप्पं ॥ तत्थारणच्चुए सो, अमरवहूसयसहस्सपरिकिष्णो । अणुहवइ उत्तमसुहं, सीइन्दो सुमहर्यं कालं ॥ होंगे। (७०) तुम भी अच्युत कल्पसे च्युत होकर अवश्य ही इसी भरत क्षेत्रमें चौदह रत्नों के स्वामी चक्रवर्ती राजा होंगे । (७१) वे दोनों देव भी च्युत होकर देवकुमारके समान कान्तिवाले इन्दुरथ और भोगरथ नामके तुम्हारे पुत्र होंगे । ( ७२ ) एक परनारीवर्जनके व्रतसे वह रावण सम्यक्त्वपरायण और धीर इन्दुरथ होगा । (७३) वे देव आदि भव प्राप्त करेंगे। बाद में वही इन्दुरथ सारे त्रैलोक्यमें प्रसिद्ध अरिहन्त होगा । (७४) वह चक्रवर्ती भी रत्नस्थल नामक नगर में राज्य करके तपोबलसे वैजयन्त में अहमिन्द्र होगा । (७५) वह तुम भी स्वर्गसे च्युत होनेपर अरिहन्तके गणमें प्रमुख बनकर त्रिभुवनके अग्रभागमें स्थित मोक्षका सुख पाओगे । (७६)
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८३ ॥ ८४ ॥ ८५ ॥
हे सुराधिपति ! तुम्हारे साथ रावणके बारेमें यह मैंने तुमसे कहा । अब लक्ष्मणके बारेमें कहा जाता वृत्तान्त सुनो। (७७) जो वह चक्रवर्तीका धर्ममें दृढ़ आस्थावान् पुत्र भोगरथ था वह तपके प्रभावसे कई उत्तम भवोंमें परिभ्रमण करेगा । (७८) पुष्करवरद्वीप के विदेहमें आये हुए पद्मपुर में चक्रधर लक्ष्मण उसी भवमें देवोंका नाथ तीर्थकर होगा । (७९) सात वर्षों में सुर-असुर जिनके चरणोंमें नमस्कार करते हैं ऐसे वे जिनेश्वर सम्पूर्ण दोषोंका संहार करके अनुत्तर मोक्षस्थान प्राप्त करेंगे (८०)
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इस तरह केवली द्वारा कही गई भावी भावों की कथा सुनकर भावनासम्पन्न इन्द्र संशयरहित हुआ । (८१) तब सम्पूर्ण आदर के साथ रामदेवको पुनः पुनः नमस्कार करके देवेन्द्रने जिनवरके अनेक भवनों में अभिवन्दन किया । (८२) नन्दीश्वर आदिमें आये हुए चैत्यमन्दिरों में वन्दन करके वह कुरुक्षेत्र में गया और भामण्डल देवको देखा । (८३) भाईको स्नेहपूर्वक सम्बोधित करके बातचीत की। फिर इन्द्र क्षणभर में अच्युत कल्पमें पहुँच गया । ( ८४) वहाँ आरण-अच्युत कल्पमें लाखों देववधुओं से घिरे हुए उस सीतेन्द्रने अतिदीर्घ काल तक उत्तम सुखका अनुभव किया । (८५)
१. ०रहा- भो० मु० । २, ४. होहिइ - प्रत्य० । ३. ०त्थले तवं का० – प्रत्य० । ५. ०स्स गणहरो पवरो-मु०, ०स्स गणहरो परमो - प्रत्य• । ६. सो पुण भो० -- प्रत्य० । ७. ०रवतीवि० प्रत्य० । ८. ०णो खचिऊण असेसकम्मसंघायं सु० - प्रत्य० । ६. एवं केवलिविहियं – मु० ।
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