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५६२ पउमचरियं
[११८. २५गच्छसु तुमं सुराहिव!, सिग्घं चिय आरणच्चयं कप्पं । अम्हेहिं पावजणियं, अणुहवियव महादुक्खं ॥ २५॥ विसयामिसलुद्धाणं, नरयगाणं अईवदुक्खाणं । निययं परवसाणं, देवा वि कुणन्ति किं ताणं? ॥ २६ ॥ देव! तुमं असमत्थो, इमस्स दुक्खस्स मोइउं अम्हे । तह कुणसु नह न पुणरवि हवइ मई नरयगइगमणे ॥२७॥ भणइ सुरो अ रहस्स, परमं चिय उत्तमं सिवं सुद्धं । सम्मईसणरयणं, गेण्हह परमेण विणएणं ॥ २८ ॥ एवं गए वि संपइ, जइ इच्छह अत्तणो धुवं सेयं । तो गेण्हह सम्मत्तं, सुद्धं निवाणगमणफलं ॥ २९ ॥ एतो न उत्तरं वि हु, न य भूयं न य भविस्सए अन्नं । महमङ्गलं पवित्ता तिलोगसिहरट्ठिया सिद्धा ॥ ३० ॥ नीवाइपयत्था जे, जिणेहिं भणिया तिलोयदरिसोहिं । तिविहेण सद्दहन्तो, सम्मद्दिट्टी नरो होई ॥ ३१ ।। भणिएहिं तेहि एवं, गहियं नरयट्टिएहिं सम्मत्त । बहुभवकोडीहि वि, अणाइमन्तेहि न य पत्तं ॥ ३२ ॥ भो सुरवह! अम्ह हियं, तुमे कयं कारणं अइमहन्तं । जं सयलनीवलोए, सम्मत्तं उत्तम दिन्नं ॥ ३३ ॥ भो भो सीइन्द! तुमं, गच्छ लहुँ आरणञ्चुयं कप्पं । जिणवरधम्मस्स फलं, भुञ्जसु अइउत्तम भोगं ॥ ३४ ॥ एवं महाणुभावो, देवो काऊण ताण उवयारं । सोएन्तो नेरइए, संपत्तो अत्तणो ठाणं ॥ ३५ ॥ सो तत्थ वरविमाणे, सेविजन्तो वि अमरकन्नाहिं । सरिऊण नरयदुक्खं, देविन्दो अद्धिई कुणइ ॥ ३६॥ अवयरिऊणाढतो, पउमेणालंकियं इमं भरहं । गय-तुरय-वसह-केसरिठिएसु देवेसु परिकिण्णो ॥ ३७॥ बहुतूरनिणाएणं, अच्छर संगिज्जमाणमाहप्पो । पउमस्स गओ सरणं, सीइन्दो सयलपरिवारो ॥ ३८ ॥
सबायरेण देवो, थोऊण पुणो पुणो पउमणाहं । तत्थेव सन्निविट्ठो, महिवीढे परियणसमग्गो ॥ ३९ ॥ तुम हमें छोड़ दो। (२४) हे सुराधिप! तुम शीघ्र ही श्रारण-अच्युत कल्पमें चले जाओ। हमें पापजनित महादुःख भोगना ही पड़ेगा। (२५) विषयरूपी मांसमें लुब्ध, नरकमें गये हुए, अतीव दुःखी और सदैव परवश प्राणियोंका देव भी क्या रक्षा कर सकते हैं ? (२६) हे देव ! हमें इस दुःखसे मुक्त करनेमें तुम भी असमर्थ हो। तुम वैसा करो जिससे नरकगतिमें गमनकी बुद्धि हमें पुनः न हो। (२७) इस पर देवने कहा कि परम रहस्यमय, उत्तम, कल्याणकर
और शुद्ध सम्यग्दर्शनरूपी रत्नको अत्यन्त विनयके साथ ग्रहण करो। (२८) ऐसा हो चुकने पर भी यदि तुम अपना शाश्वत कल्याण चाहते हो तो निर्वाणगमनका फल देनेवाला शुद्ध सम्यक्त्व धारण करो। (२९) इससे बढ़कर दूसरा महामंगल न तो है, न था और न होगा। इसीसे पवित्र होनेके कारण सिद्ध तीनों लोकोंके शिखर पर स्थित होते हैं। (३०) त्रिलोकदर्शी जिनोंने जो जीवादि पदार्थ कहे हैं उस पर मन-वचन-काया तीनों प्रकारसे श्रद्धा रखनेवाला मनुष्य सम्यग्दृष्टि होता है। (३१) इस प्रकार कहने पर नरकस्थित उन्होंने वह सम्यक्त्व प्राप्त किया जो अनादि-अनन्त अनेक करोड़ो भवोंमें भी प्राप्त नहीं किया था। (३२)
वे कहने लगे कि, हे सुरपति ! तुमने हमारा बहुत बड़ा हित किया है, क्योंकि सम्पूर्ण जीवलोकमें जो उत्तम सम्यक्त्व है वह दिया है। (३३) हे सीतेन्द्र ! तुम जल्दी ही रणाच्युत कल्पमें जाओ और जिनवरके धर्मके फलस्वरूप अत्युत्तम भोग का उपभोग करो। (३४) ।
इस तरह वह महानुभाव इन्द्र उन पर बड़ा उपकार करके नारकियोंके लिए शोक करता हुआ अपने स्थान पर चला गया। (३५) वहाँ उत्तम विमानमें देवकन्याओं द्वारा सेव्यमान वह इन्द्र नरकके दुःखको यादकर मनमें अशान्ति धारण करता था। (३६) हाथी, घोड़े, वृषभ तथा सिंहों पर स्थित देवोंसे घिरा हुआ वह नीचे उतरकर राम द्वारा अलंकृत इस भरतक्षेत्र में आया । (३७) नानाविध वाद्योंके निनादके साथ अप्सराओं द्वारा गाये जाते माहात्म्यवाला वह सीतेन्द्र सकल परिवारके साथ रामकी शरणमें गया। (३८) सम्पूर्ण आदरके साथ पुनः पुनः रामकी स्तुति करके परिजनके
१. •याणं च तिव्वदु.-प्रत्यः। २. होहि-प्रत्यः। ३. ०वकोडीहिं वियणापत्तेहि वि ण पत्तं-प्रत्यः । ४. .म्मफलं चिय, भु०-प्रत्यः। ५. भावो, महयं का०-मु०, भावो, काऊण ताण सो उ उ.-प्रत्य.। ६. रसुरगि०- म०।
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