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११६.२]
११६. बलदेवमुणिदाणपसंसाविहाणपव्वं एवं तत्थ पुरजणे, संजाए कलयलारवे महए । हत्थी अलाणथम्भे, भत्तण विणिग्गया बहवे ॥ १४ ॥ गलरज्जुया य तुरया, तोडेऊणं पलायणुज्जुत्ता । जाया खरं-करहा विय, महिस-बइल्ला य भयभीया ॥ १५ ॥ तं जणवयस्स सई, पडिणन्दी नरवई सुणेऊणं । पेसेइ निययभिच्चे, कोस इमं आउलं नयरं ? ॥ १६ ॥ परिमुणियकारणेहि, सिट्टे भिच्चेहिं नरवई ताहे । पेसेइ पवरसुहडे, आणह एवं महासमर्ण ॥ १७ ॥ गन्तूण ते वि सुहडा, भणन्ति तं मुणिवरं कयपणामा । विनवइ अम्ह सामी, तस्स घरं गम्मए भयवं! ॥१८॥ तस्स घरम्मि महामुणि !, सहावमुवकप्पियं वराहारं । गेण्हसु निराउलमणा, एहि पसायं कुणसु अम्हं ॥ १९ ॥ एव भणियं सुणेउं, संबाओ तत्थ पउरनारीओ। भिक्खा समुज्जयाओ, दाउं सुपसन्नभावाओ ॥ २० ॥ रायपुरिसेहिं ताओ, सिग्धं अवसारियाउ जुवईओ । ताहे सुदुम्मणाओ, तक्खणमेतेण जायाओ ॥ २१ ॥ उवयारछलेणेवं, नाऊण य अन्तराइयं ताहे । जाओ विपराहुत्तो, महामुणी वच्चइ सुहेणं ॥ २२ ॥ पविसरइ महारणं, संवेगपरायणो विसुद्धप्पा । जुगमित्तंतरदिट्ठी, मयमोहविवजिओ सया विमलमणो ॥ २३ ॥
॥ इइ पउमचरिए गोयरसंखोभविहाणं नाम पश्चदसुत्तरसयं पव्वं समत्तं ॥
११६. बलदेवमुणिदाणपसंसाविहाणपव्वं अह सो मुणिवरवसहो, वोलीणे तत्थ वासरे बिइए । कुणई य संविग्गमणो, अभिग्गहं धीरगम्भीरो ॥ १ ॥
जइ एत्थ महारण्णे, होहिइ भिक्खा उ देसयालम्मि । तं गेण्हीहामि अहं, न चेव गाम पविसरामि ॥ २ ॥ वहाँ नगरजनों का महान् कोलाहल होने पर बन्धनस्तम्भोंको तोड़कर बहुतसे हाथी भाग खड़े हुए। (१४) घोड़े गलेकी रस्सी तोड़कर पलायन करनेके लिए उद्यत हुए और गधे, ऊँट, भैंसे और बैल भी भयभीत हो गये। (१५) लोगोंके उस कोलाहलको सुनकर प्रतिनन्दी राजाने अपने नौकरोंको भेजा कि यह नगर क्यों आकुल हो गया है ? (१६) कारण जानकर नौकरोंने राजासे कहा। तब उसने उत्तम सुभटोंको भेजकर आज्ञा दी कि उन महाश्रमणको यहाँ लाओ। (१७) जा करके और प्रणाम करके उन सुभटोंने उन मुनिवरसे कहा कि, हे भगवन् ! हमारे स्वामी अपने घर पर आनेके लिये आपसे बिनती करते हैं। (१८) हे महामुनि! उनके घर पर स्वाभाविक रूपसे तैयार किया गया उत्तम आहार आप निराकुल मनसे ग्रहण करें। आप पधारें और हम पर अनुग्रह करें। (१६) ऐसा कहना सुनकर वहाँकी सुप्रसन्न भाववाली सब नगरनारियाँ भिक्षा देनेके लिए उद्यत हुई। (२०) राजपुरुषोंने उन युवतियोंको शीघ्र ही दूर हटाया। उस समय वे एकदम अत्यन्त खिन्न हो गई। (२१) इस प्रकार उपचारके बहानेसे अन्तराययुक्त जानकर महामुनि वापस लौटे और सुखपूर्वक चले गये। (२२) संवेगपरायण, विशुद्धात्मा, साढ़े तीन हाथ तक देखकर चलनेवाले, मद एवं मोहसे रहित तथा विमल मनवाले रामने महारण्यमें प्रवेश किया। (२३)
॥ पद्मचरितमें भिक्षाटन संक्षोभ विधान नामक एक सौ पन्द्रहवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥
११६. बलदेव मुनि दानकी प्रशंसा । वहाँ दूसरा दिन व्यतीत होने पर मनमें संवेगयुक्त और धीर, गम्भीर उन श्रेष्ठ मुनिवरने अभिग्रह किया कि यदि इस महारण्यमें यथा समय भिक्षा मिलेगी तो उसे मैं ग्रहण करूँगा, किन्तु गाँवमें प्रवेश नहीं करूँगा। (१-२) इधर जब
१. महाजस! सहावउव.---प्रत्यः। २. सव्वत्तो त.--प्रत्य० । ३. ०६ पहेणं प्रत्यः। ४. भवसिरिरंजियदेहो, सुरनरवइनमियचरणजुओ। पविसरइ महारण्णं, मयमोह.-मु०, उकण्ठाउलहिययं, सव्वं काऊण जणवयं सुपुरिसो। पविसरइ महारणं, मयमोह-प्रत्य.' ५. वारिसे दिवसे । कु०-प्रत्य० । ६. •इ सुसंवि०-प्रत्य० । ७. होही भि., होहह भि., प्रत्य०1८.तं गिहिस्सामि-प्रत्य? ।
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