________________
५८६
पउमचरियं
४ ॥
५ ॥
अह तत्थ समारूढे, साहूण अभिग्गहे महाघोरे । ताव य दुट्ठाऽऽसहिओ, पडिणन्दी पेसिओ रणे ॥ ३ ॥ तस्सऽवहियस्स सबो, समाउलो जणवओऽणुमग्गेणं । वच्चइ तुरयारूढो, सहिओ सामन्तचक्केणं ॥ हीरन्तस्सारण्णे, पडिणन्दिनराहिवस्स सो तुरओ । वेगेण वच्चमाणो, सरवरपङ्के च्चिय निहुत्तो ॥ तावय तुरथारूढा, समागया वप्पकद्दमनिहुत्तं । पेच्छन्ति वरहयं तं मरणावत्थं समणुपत्तं ॥ ६ ॥ उत्तारिऊण तुरयं भणन्ति सुहडा तओ नरवरिन्दं । एयं नन्दणपुण्णं, सरं तुमे दरिसियं अम्हं ॥ ७ ॥ थोवन्तरेण ताव य, समागओ नरवंइस्स खन्धारो । तस्सेव सरस्स तडे, सिग्धं आवासिओ सबो ॥ ८ ॥ अह सो भडेहिं सहिओ, विमलजले मज्जिऊण नरवसहो । आहरणभूसियङ्गो, भोयणभूमीसुहासीणो ॥ ९ ॥ एत्तो सो बलदेवो, गोयरवेलाऍ पविसह निवेसं । दिट्ठो य नरवईणं, पणओ य ससंभ्रममणेणं ॥ १० ॥ संमज्जिओवलित्ते, कमलेहि समच्चिए महिपसे । तत्थेव मुणिवरो सो, ठविओ निवईण भत्ती ॥ गेहि वराहा, राया पउमस्स मुइयसबङ्गो । खीराइसुसंपुष्णं, आहारं देइ परितुट्टो ॥ सद्धाइगुणसमग्गं, दायारं नाणिऊण सुरपवरा । मुञ्चन्ति रयणवुद्धिं गन्धोदयसुरभिकुसुमजुयं ॥ घुटं च अहो दाणं, गयणयले दुन्दुही तओ पहया । देवेहि अच्छराहि य, पवत्तियं गीयगन्धवं ॥ एवं कमेण पत्ते, पारणए नरवईण पउमाभो । पणओ भावियमइणा, परिअणसहिएण पुणरुत्तं ॥ पूया सुरेहिं पत्तो, साहूण अणुवयाई दिन्नाई । जाओ विसुद्धभावो, पडिणन्दी निणमयाणुओ ॥ रामो वि समयसंगय-सीलङ्गसहस्सणेयनोगघरो । विहरइ विमलसरीरो, बीओ व दिवायरो समुज्जोयन्तो ॥ १७॥
1
११ ॥
१२ ॥
१३ ॥
॥ इइ पउमचरिए दाणपसंसाविहाणं नाम सोलसुत्तरस्यं पव्वं समत्तं ॥
साधु महाघोर अभिग्रह धारण किया उस समय एक दुष्ट घोड़े द्वारा अपहृत प्रतिनन्दीने अरण्य में प्रवेश किया । (३) उसके अपहृत होने पर आकुल सब लोग घोड़े पर चढ़कर सामन्तों के साथ उनके पीछे गये । (४) अरण्य में प्रतिनन्दी राजाका अपहरण कर वेगसे जाता हुआ वह घोड़ा सरोवर के कीचड़ में निमग्न हो गया । (५) उस समय घोड़े पर सवार होकर आये हुए लोगोंने किनारे के पासके कीचड़में डूबे हुए और मरणावस्थाको प्राप्त उसे सुन्दर घोड़े को देखा । (६) शीघ्र ही घोड़ेको बाहर निकालकर सुभटोंने राजासे कहा कि इस नन्दनपुण्य सरोवरको आपने हमें दिखलाया । (७)
१. ०ओ सम० मु० । २ ० वरस्स - प्रत्य० । ३. ० सुसाहीणो प्रत्य• । ४. • वरेण प्रत्य• । खी० - प्रत्य० । ६. पत्तो, पा० मु०, दत्ते, पा० - प्रत्य० ।
थोड़ी देर के बाद राजाका सैन्य आ गया । उसी सरोवर के तट पर सबने शीघ्र ही डेरा लगाया । (८) इसके बाद सुभटोंके साथ निर्मल जलमें स्नान करके आभरणोंसे विभूषित शरीरवाला वह राजा भोजनस्थान पर सुखसे बैठा । (६) उधर उस बलदेवने गोचरीके समय छावनी में प्रवेश किया । राजाने उन्हें देखा और मनमें आदर के साथ प्रणाम किया । (१०) बुहारे और पोते गये तथा कमलोंसे अर्चित उस पृथ्वी- प्रदेश पर राजाने भक्तिपूर्वक उन मुनिवर को ठहराया । ( ११ ) सारे शरीरमें मुदित तथा परितुष्ट राजाने उत्तम आहार ग्रहण करके रामको क्षीर आदिसे परिपूर्ण आहार दिया । (१२) श्रद्धा आदि गुणों से युक्त दाताको जानकर देवोंने रत्नोंकी तथा सुगन्धित पुष्पोंसे युक्त गन्धोदककी वृष्टि की। (१३) तब 'अहो दान !' ऐसी देवोंने घोषणा की तथा आकाश में दुन्दुभि बजाई अप्सराओंने गीत तथा नृत्ययुक्त संगीत गाये । (१४) इस प्रकार राजाने रामको पारना कराया । शुद्ध बुद्धिवाले उसने परिजनोंके साथ पुनः पुनः प्रणाम किया । (१५) देवोंसे पूजा प्राप्त की । साधु व्रत दिये । इस तरह विशुद्ध भाववाला प्रतिनन्दी जिनमतमें अनुरक्त हुआ । (१६) शास्त्रों में कहे गये हज़ारों शीलांग तथा अनेक योगोंको धारण करनेवाले, निर्मल शरीरवाले तथा देदीप्यमान दूसरे सूर्य सरीखे राम भी विहार करने लगे । (१७) ॥ पद्मचरितमें दान-प्रशंसा विधान नामक एक सौ सोलहवाँ पर्व समाप्त हुआ |
Jain Education International
[ ११६. ३
१४ ॥
१५ ॥
१६ ॥
For Private & Personal Use Only
५. स्स सुद्धसंवेगो ।
www.jainelibrary.org