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११५. बलदेवमुणिगोयरसंखोभविहाणपव्वं अह सो बलदेवमुणी, छठुववासे तओ वइक्वन्ते । पविसरइ सन्दणथलिं, महापुरि पारणट्ठाए ॥ १ ॥ मत्तगयलीलगामी, सरयरवी चेव कन्तिसंजुत्तो । दिट्ठो नयरिजणेणं, अच्चन्भुयरूवसंठाणो ॥ २ ॥ 'तं पेच्छिऊण एन्तं, विणिग्गओ अहिमुहो जणसमूहो । वेढेइ पउमणाहं, साहुक्कारं विमुञ्चन्तो ॥ ३ ॥ जंपइ जणो समत्थो, अहो हु तवसंजमेण रूवेणं । नरसुन्दरेण सयलं, एएण अलंकियं भुवणं ॥ ४ ॥ वच्चइ जुगन्तदिट्टी, पसन्तकलुसासओ पलम्बभुओ । अच्चब्भुयरूवधरो, संपइ एसो जयाणन्दो ॥ ५॥ पविसइ तं वरनयरिं, वन्दिज्जन्तो य सबलोएणं । उक्कीलिय-णचण-वग्गणाइ अहियं कुणन्तेणं ॥ ६ ॥ नयरी पविट्ट सन्ते, नहक्कम समयचेट्टिए रामे । पडिपूरिया समत्था, रत्थामग्गा जणवएणं ॥ ७ ॥ वरकणयभायणत्थं, एयं आणेहि पायसं सिग्छ । सयरं दहिं च दुद्धं. तुरन्तो कुणसु साहीणं ॥ ८ ॥ कप्पूरसुरहिगन्धा, बद्धा गुलसकराइसु मणोज्जा । आणेहि मोयया इह, सिग्घं चिय परमरसजुत्ता ॥९॥ थालेसु वट्टएसु य, कञ्चणपत्तीसु तत्थ नारीओ। उवणेन्ति वराहारं, मुणिस्स दढभत्तिजुत्ताओ ॥ १० ॥ आबद्धपरियरा वि य, केइ नरा सुरभिगन्धजलपुण्णा । उवणेन्ति कणयकलसे, अन्नोन्नं चेव लङ्घन्ता ॥ ११ ॥ नंपन्ति नायरजणा, भयवं! गेण्हह इमं सुपरिसुद्धं । आहारं चिय परमं, नाणारसगुणसमाउत्तं ॥ १२ ॥ दढ-कढिणदप्पिएहिं, भिक्खादाणुज्जएहिं एएहिं । पाडिज्जन्ति अणेया, भायणहत्था तुरन्तेहिं ॥ १३ ॥
११५. रामका भिक्षाटन पष्ट (बेला) का उपवास पूर्ण होने पर उन बलदेव मुनिने महानगरी स्यन्दनस्थलीमें पारनेके लिए प्रवेश किया। (१) मत्त गजके समान लीलापूर्वक गमन करनेवाले, शरत्कालीन सूर्य के समान कान्तियुक्त तथा अत्यन्त अद्रत रूप एवं संस्थानवाले वे नगरीके लोगों द्वारा देखे गये। (२) उन्हें आते देख जनसमूह निकलकर सामने गया और साधुकार करते हुए उसने रामको घेर लिया। (३) सबलोग कहने लगे कि अहो ! तप, संयम एवं रूपसे इस सुन्दर मनुप्यने सारे लोककों अलंकृत किया है। (४) युग (चार हाथ) तक दृष्टि रखनेवाले, मानसिक कालुष्य जिनका शान्त हो गया है ऐसे लटकती हुई भुजाओंवाले, अत्यन्त अद्भुत रूप धारण करनेवाले और जगत्को आनन्द देनेवाले ये इस समय जा रहे हैं। (५) उतमक्रीड़ा तथा नाचना-बजाना आदि करते हुए सबलोगों द्वारा बन्दन किये जाते उन्होंने उस नगरी में प्रवेश किया। (६) नगरीमें प्रविष्ट होने पर क्रमशः विहार करते हुए जब राम शास्त्रानुसार आचरण कर रहे थे तब लोगोंने सारे गली-कूचे भर दिये । (७) सोनेके सुन्दर पात्रमें इनके लिए शीघ्र ही खीर लाओ; शर्करायुक्त दही और दुध तुरन्त ही इन्हें दो; कपूरकी मीठी सुगन्धवाले, गुड़ और शक्करसे बाँधे गये सुन्दर और उत्तम रससे युक्त लड्डू जल्दी ही यहाँ लाओ-ऐसा लोग कहते थे । (८-8) दृढ़ भक्तियुक्त स्त्रियाँ थालों में कटोरोंमें तथा सोनेके पात्रों में मुनिके लिए उत्तम आहार लाई। (१०) कमर कसे हुए कितने ही मनुष्य एक-दुसरेको लाँघकर मीठी सुगन्धवाले जलसे भरे हुए सोनेके कलश लाये । (११) नगरजन कहने लगे कि, भगवन् ! अत्यन्त परिशद्ध तथा नाना रस एवं गुणोंसे युक्त यह उत्तम आहार आप ग्रहण करें। (१२) भिक्षादानके लिए. उद्यत हो जल्दी करते हुए इन दृढ़, कठिन और दर्पयुक्त मनुष्योंने हाथमेंसे अनेक पात्र गिरा दिये। (१३) इस तरह
१. तओ अइ०-प्रत्यः। २. संपिच्छिऊण-प्रत्य० । ३. णयमंदिरेण-प्रत्य० । ४. उवकीलिय-णचण-वक्षणाति-प्रत्य० । ५. •ण-गायणाइ-प्रत्य। ६. .न्ति णाह ! भयवं। गिण्ह इमं सव्वदोसपरि०-प्रत्य० ।
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