Book Title: Paumchariyam Part 2
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 233
________________ पउमचरियं [११७.१५परिचिन्तिऊण एवं, अवइण्णो सुरवरो विमाणाओ। सिग्धं माणुसलोयं, संपत्तो जत्थ पउमाभो ॥ १५ ॥ बहुकुसुमरओवाही, कओ य पवणो सुरेण सयराहं । कोलाहलियं च वणं, पक्खिगणाणं' कलरवेणं ॥ १६ ।। तरुतरुणपल्लवुग्गयमञ्जरिसहयारकिसुयावयरं । कोइलमहुरुग्गीय, उज्जाणं महुयरारुणियं ॥ १७ ॥ एवंविहं वणं तं, देवो काऊण जाणगीरूवं । रामस्स समभासं, गओ य नेहाणुराएणं ॥ १८ ॥ सीया किल सहस त्ती, भणइ अहं आगया तुह समीवं । राहव ! विरहाउलिया, संपइ दुक्खं चिय पवन्ना ॥१९॥ नंपइ पासल्लीणा, पण्डियमाणी अहं तुह समक्खं । पबइया विहरन्ती, खेयरकन्नाहि परियरिया ॥ २० ॥ खेयरकन्नाहिं अहं, भणिया दावेहि राहवं अम्हं । तुज्झाएसेण सिए!, तं चेव वरेमु भत्तारं ॥ २१ ॥ एयन्तरम्मि सहसा, नाणालंकारभूसियङ्गीओ। पत्ताउ कामिणीओ, सुरिन्दवेउवियकयाओ ॥ २२ ॥ ठविऊण मए पुरओ, समयं एयाहिं उत्तम भोगं । भुञ्जसु देव! जहिच्छं, साएयाए सुरिन्दसमं ॥ २३ ॥ अइकक्खडा महाजस!, बावीस परीसहा छुहाईया । एएहिं संजमरणे, राहव! बहवो नरा भग्गा ॥ २४ ॥ ताव य सुरजुबईहिं, पवत्तिय सवणमणहरं गीयं । आढत्तं चिय नट्ट, कडक्खदिट्ठीवियारिल्लं ॥ २५॥ कुङ्कुमकयचच्चिकं, दावेन्ती थणहरं तहिं का वि । नच्चइ मणखोभयरं, अधीरसत्ताण पुरिसाणं ॥ २६ ।। अन्ना जंपइ महुरं, इमाहिं जुवईहिं सामि ! अइगाढं । उबेइया महाजस!, सरणं तुह आगया सिग्धं ॥ २७ ।। का वि विवायं महिला, कुणमाणी आगया सह सहोहिं । पुच्छइ कहेहि राहव, कमेका उ) ण सवणस्स?ऽतीयाडा(पढा) ॥ बाहा पसारिऊणं, दूरत्थाए असोगलइयाए । गेण्हेइ कुसुममेलं, "दावेन्ती का वि थणजुयलं ॥ २९ ॥ ऐसा सोचकर वह सुरवर विमानसे नीचे उतरा और जहाँ राम थे वहाँ मनुष्यलोकमें शीघ्र ही आ पहुँचा । (१५) उस देवने एकदम बहुत प्रकारके पुष्पोंकी रजको वहन करनेवाले पवनका निर्माण किया और पक्षियोंके कलरवसे वन कोलाहलयुक्त बना दिया। (१६) निकले हुए पल्लवोंवाले तरुण वृक्षों तथा मंजरीयुक्त सहकार एवं पलाश वृक्षोंके समूहसे युक्त, कोयलके मधुर स्वरसे गाया जाता और भौरोंकी गुनगुनाहटसे व्याप्त-ऐसे उस वनको बनाकर और सीताका रूप धारण करके वह देव स्नेहपूर्वक रामके पास गया। (१७-१८) हँसती हुई सीताने कहा कि, हे राम! विरहसे आकुल और दुःख पाई हुई मैं तुम्हारे पास आई हूँ। (१६) पासमें बैठा हुई उसने कहा कि अपने आपको पण्डित माननेवाली मैं तुम्हारे समक्ष दीक्षित हुई थी। विहार करती हुई मेरा विद्याधर-कन्याओंने अपहरण किया। (२०) खेचरकन्याओंने मुझे कहा कि हमें राम दिखनाओ। हे सीते! तुम्हारे आदेशसे उसी भोका वरण हम करेंगी। (२१) इसी बीचमें सहसा सुरेन्द्र द्वारा दिव्य सामर्थ्यसे उत्पन्न नानाविध अलंकारोंसे विभूषित शरीरवाली स्त्रियाँ आई । (२२) हे देव! मुझे आगे स्थापित करके इनके साथ साकेतमें सुरेन्द्र के समान उत्तम भोगोंका इच्छानुसार उपभोग करो। (२३) हे महायश ! क्षुधा आदि बाईस परीषह अतिकठोर हैं। हे राधव ! संयमरूपी युद्ध में इनसे वहुत-से मनुष्य भग्न हुए हैं। (२४) उस समय देवयुवतियोंने श्रवण-मनोहर गीत गाना शुरू किया और कटाक्षयुक्त दृष्टियोंसे विकारयुक्त नृत्य करने लगी। (२५) कोई वहाँ केशरका लेप किये हुए स्तनोंको दिखाती थी, कोई अधीर और आसक्त पुरुषोंके मनको क्षुब्ध करनेवाला नाच कर रही थी, दूसरी मीठे वचनोंसे कह रही थी कि, हे नाथ ! इन युवतियोंसे मैं अत्यन्त खिन्न हो गई हूँ। इसीलिए हे महायश! मैं तुम्हारी शरणमें शीघ्र ही आई हूँ। (२६-२७) कोई विवाद करती हुई स्त्री सखियोंके साथ आई और पूछने लगी कि, हे राघव ! आप श्रमणको कौनसी स्त्री अति आदरणीय है ? (२८) कोई हाथ पसारकर दोनों स्तनोंको दिखलाती हुई दूरस्थ अशोकलतिकाके फूलोंके गुच्छेको लेती थी। (२६) इन तथा अन्य दूसरे क्रियाव्यापारोंसे धीरमना १. .गं घणरवण-प्रत्यः। २. • सुयवयारं । कोइलमुहलुग्गीयं-प्रत्य। ३. .हं च देवो काऊणं जणयतणयवररूयं । रा.-प्रत्य। ४. •ल विहरती, •ल सुहपत्ती-प्रत्यः । ५. • नाहिं अवहरिया-प्रत्यः । ६. परिवरिया-प्रत्य०। ७. •हिं, णिव्वत्तं समणमण-प्रत्यः । ८. उब्वेविया-प्रत्यः। ९. कवणेस वणस्सई नियडे-मु.। १०. दावेइ य तह य थप-प्रत्य। Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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