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पउमचरियं
[११३. ५१परिहिण्डन्तेण मया, संसारे कह वि माणुसं नम्मं । लद्धं अलद्धपुर्व, मूढो चिय जाणमाणो हैं ॥ ५१ ॥ लब्भन्ति कलत्ताई, संसारे बन्धवा य णेयविहा । एक्का जिणवरविहिया, नवरं चिय दुल्लहा बोही ॥ ५२ ॥ एवं पडिबुद्धं तं, देवा नाऊण अॅप्पणो रिद्धिं । दावेन्ति हरिसियमणा, विम्हयनणणिं तिहुयणम्मि ॥ ५३ ॥ पवणो सुरहिसुयन्धो, नाणविमाणेसु छाइयं गयणं । सुरजुवईसु मणहरं, गीयं वरवीणमहुरसरं ॥ ५४ ॥ एयन्तरम्मि देवा, दोणि वि पुच्छन्ति तत्थ रहुणाहं । कह तुज्झ नरवराहिव!, सुहेण दियहा वइकन्ता ॥५५॥ तो भणइ सीरधारी, कत्तो कुसलं महं अपुण्णस्स । निययं तु ताण कुसलं, जाण दढा जिणवरे भत्ती ।। ५६ ॥ पुच्छामि फुड साहह, के तुब्भे सोमदंसणसहावा ? । केणेव कारणेणं, जणियं च विचेट्ठियं एवं ? ॥ ५७ ॥ तत्तो 'जडाउदेवो, जंपा जाणासि दण्डयारणे । मुणिदरिसणेण तइया, गिद्धो तुब्भं समल्लीणो ॥ ५८ ।। घरिणीऍ तुज्झ नरवइ !, अणुएण य लालिओ चिरं कालं। सीयाएँ हरणसमए, निहओ च्चिय रक्खसिन्देणं ॥५९॥ तस्स मरन्तस्स तुमे, महिलाविरहाउलेण वि किवाए । दिन्नो य नमोकारो, पञ्चमहापुरिससंजुत्तो ॥ ६० ॥ कालगओ माहिन्दे, सामिय! सो हं सुरो समुप्पन्नो । तुज्झ पसाएण पहू !, परमिड्ढेि चेव संपत्तो ॥ ६१ ॥ तिरियभवदुक्खिएणं, नं सुरसोक्खं मए समणुपत्तं । तं चेव तुमं राहव!, पम्हुट्टो एत्तियं कालं ॥ ६२ ॥ तुज्झऽवसाणे राहव!, अकयग्यो ह इहागओ पावो । किर किंचि थेवयं पि य, करेमि एयं तु उवयारं ॥ ६३ ।। तं भणइ कयन्तसुरो, इहासि सेणावई अहं तुझं । नामेण कयन्तमुहो, सो सुरपवरो समुप्पन्नो ॥ ६४ ॥ सामिय! देहाणत्तिं, दवं जं उत्तमं तिहुयणम्मि । तं तुज्झ संपइ पहू !, सबं तु करेमि साहीणं ॥ ६५ ॥ रामो भणइ रिखुबलं, भम्गं तुन्भेहि बोहिओ अहयं । दिट्ठा कल्लाणमुहा, एयं चिय किन्न पजत्तं ? ॥ ६६ ॥
संसारमें घूमते हुए मैंने किसी तरह पहले अप्राप्त ऐसा मनुष्य-जन्म प्राप्त किया है, यह जानता हुआ भी मैं मूर्ख ही रहा । (५१) संसारमें स्त्रियाँ और अनेक प्रकारके बन्धुजन मिलते हैं. पर एकमात्र जिनवरविहित बोधि दुर्लभ है । (५२) इस तरह उन्हें प्रतिबुद्ध जानकर मनमें हर्षित देवोंने तीनों लोकों में विस्मय पैदा करनेवाली अपनी ऋद्धि दिखलाई । (५३) मीठी मह कवाला पवन, यान एवं विमानोंसे आच्छादित आकाश और सुरयुवतियों द्वारा गाया जानेवाला मनोहर और उत्तम वीणाके मधुर स्वरवाला गीत-ऐसी ऋद्धि दिखलाई । (५४) तब दोनों देवोंने रामसे पूछा कि, हे राजन् ! आपके दिन किस तरह सुखसे बीत सकते हैं ? (५५) तब हलधर रामने कहा कि अपुण्यशाली मेरी कुशल कैसी ? जिनकी जिनवरमें दृढ़ भक्ति है उन्हींकी कुशल निश्चित है। (५६) मैं पूछता हूँ। तुम स्पष्ट रूपसे कहना। सौम्य दर्शन और स्वभाववाले तुम कौन हो? और किसलिए यह विचेष्टा पैदा की ? (५७) तब जटायुदेवने कहा कि क्या आपको याद है कि दण्डकारण्यमें उस समय मुनिके दर्शनके लिए एक गीध आपके पास आया था। (५८) हे राजन् ! आपकी पत्नी और छोटे भाईने चिरकाल तक उसका लालन-पालन किया था और सीताके अपहरणके समय राक्षसेन्द्र रावण द्वारा वह मारा गया था। (५६) मरते हुए उसको पत्नीके विरहसे व्याकुल होने पर भी आपने कृपापूर्वक पाँच महापुरुषोंसे युक्त नमस्कार मंत्र दिया था। (६०) हे स्वामी ! मरने पर वह मैं माहेन्द्र देवलोकमें देवरूपसे पैदा हुआ हूँ। हे प्रभो! आपके प्रसादसे परम ऋद्धि भी मैंने पाई है। (६१) हे राघव ! तियेच भवमें दुःखित मैंने जो देवसुख पाया उससे इतने काल तक तुम विस्मृत हुए हो। (६२) हे राम! आखिरकार अकृतज्ञं और पापी मैं यहाँ आया और कुछ थोड़ासा भी यह उपचार किया। (६३)
कृतान्त देवने कहा कि यहाँ पर आपका कृतान्तवदन नामका जो सेनापति था वह मैं देवरूपसे उत्पन्न हुआ हूँ। (६४) हे स्वामी! आप आज्ञा दें। हे प्रभो! तीनों लोकमें जो उत्पन्न द्रव्य है वह सब मैं आपके अधीन अभी करता हूँ। (६५) इस पर रामने कहा कि तुमने शत्रशैन्यको भगा दिया, मुझे बोधित किया और पुण्यमुखवाले
१. यं वो, मू०-प्रत्य० । २. अत्तणो-प्रत्य। ३. गोयवरं वीण.-प्रत्य०। ४. .हा अइ०-प्रत्य० । ५. जडागिदे०-प्रत्य०। ६. द्धो उ तुमं स.-प्रत्य०। ७. .गसुहा, ए.-प्र.।
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