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११२. लक्खणविओगबिहीसणवयणपर्व्वं
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अन् य बहू, खेर सहा सअंसुनयणजुया । पविसन्ति सिरिहरं ते, रामस्स कयञ्जलिपणामा ॥ ३ ॥ अह ते विसण्णवयणा, काऊण े विही उ महियले सबे । उवविट्ठा पउमाभं, भणन्ति पाएसु पडिऊणं ॥ ४ ॥ वि य इमो महानस !, सोगो दुक्खेहिं मुञ्चइ हयासो । तह वि य अवसेण तुमे, मोत्तबो अम्ह वयणेणं ॥ ५ ॥ ते एव जंपिऊणं, तुण्डिक्का वेयरा ठिया सबे । संथावणम्मि कुसलो, तं भणइ बिहीसणो वयणं ॥ ६ ॥ जलबुब्बुयसरिसाईं, राहव ! देहाइँ सबजीवाणं । उप्पज्जन्ति चयन्ति य, नाणा जोणीसु पत्ताणं ॥ ७ ॥ इन्दा सलोगपाला, भुञ्जन्ता उत्तमाई सोक्खाईं । पुण्णक्खयम्मि ते वि य, चइउं अणुहोन्ति दुखाई || ॥ * ते तत्थ मणुयदेहे, तणबिन्दुचलाचले अइदुगन्धे । उप्पज्जन्ति महानस !, का सन्ना पायए लोए ? ॥ ९ ॥ अन्नं मयं समाणं, सोयइ अहियं विमूढभावेगं । मच्चुवयणे पंविहूं, न सोयई चेत्र अप्पाणं ॥ १० ॥ जत्तो भूइ जाओ, जीवो तत्तो पभूइ मच्चणं । गहिओ कुरङ्गओ विव, करालवयणेण सोहेणं ॥ ११ ॥ लोयस्स पेच्छसु पहू !, परमं चिय साहसं अभीयस्स । मच्चुस्स न वि य बीहइ, पुरओ विहु उग्गदण्डस्स ॥ १२॥ तं नत्थि जीवलोए, ठाणं तिलतुसतिभागमेत्तं पि । जत्थ न जाओ जीवो, जत्थेव न पाविओ मरणं ॥ १३ ॥ मोत्तूण निणं एकं, सबं ससुरासुरम्मि तेलोके । मच्चूण छिज्जइ पहू!, वसहेण तणं व तद्दियसं ॥ १४ ॥ भमिऊ य संसारे, जीवो कह कह वि लहइ मणुयत्तं । वन्धवनेहविणडिओ, न गणइ आउं परिगलन्तं ॥ १५॥ जणणीऍ जइ वि गहिओ, रक्खिज्जन्तो वि आउहसएहिं । तह वि य नरो नराहिव !, हीरइ मच्चूण अकयत्थो ॥ १६॥ संसारम्मि अणन्ते, "सयणोहा इह सरीरिणा पत्ता । ते सिन्धुसायरस्स वि, सिकयाए सामि अहिययरा ॥ १७ ॥
११२.१७]
खेचर राजाओंने रामको हाथ जोड़कर प्रणाम करके भवनमें प्रवेश किया। ( २-३ ) तब विषण्ण मुखवाले वे सब यथोचित विधि करके ज़मीन पर बैठे और पैरोंमें गिरकर रामसे कहने लगे कि, हे महायश ! यद्यपि हताश करनेवाला यह शोक मुश्किल से छोड़ा जा सके ऐसा है, तथापि हमारे कहने से आपको इसका परित्याग करना चाहिए । (४-५ ) ऐसा कहकर वे सब खेचर चुप हो गये। तब सान्त्वना देने में अतिकुशल विभीपणने उनसे ऐसा वचन कहा । (६)
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हे राव ! सब जीवों के शरीर पानीके बुल्ले के समान क्षणिक हैं । नाना योनियों को प्राप्त करके जीव पैदा होते हैं और मरते हैं। (७) लोकपालोंके साथ इन्द्र उत्तम सुखोंका उपभोग करते हैं । पुण्यका क्षय होने पर वे भी च्युत होकर दुःखों का अनुभव करते हैं । (८) हे महायश ! वे यहाँ तिनके पर स्थित बूँद की भाँति अस्थिर और अतिदुर्गन्धमय मनुष्य देहमें पैदा होते हैं, तो फिर पापी लोगोंकी तो बात ही क्या ? (६) मनुष्य मरे हुए दूसरेके लिए विमूढ़ भावसे बहुत शोक करता है, किन्तु मृत्युके मुखमें प्रविष्ट अपने आपका शोक नहीं करता । (१०) जबसे जीव पैदा हुआ है तबसे मृत्युने, कराल मुखवाले सिंहके द्वारा पकड़े गये हिरनकी भाँति, पकड़ रखा है । (११) हे प्रभो ! निडर लोगों का अविसाहस तो देखो । आगे खड़े हुए उग्र दण्डवाले यमसे भी वे नहीं डरते । (२२) जीवलोकमें तिल और तुपके तीसरे भाग जितना ऐसा कोई भी स्थान नहीं है जहाँ जीव पैदा नही हुआ है और जहाँ जीवने मरण भी नहीं पाया है । (१३) हे प्रभो ! सुरअसुरसे युक्त त्रिलोकमें एक जिनवरको छोड़कर सब मृत्युके द्वारा, वृषभके द्वारा उस दिनके घासकी भाँति, विच्छिन्न किये जाते हैं । (१४) संसार में भ्रमण करके जीव किसी तरहसे मनुष्य भव प्राप्त करता है । बन्धुजनोंके स्नेहमें नाचता हुआ वह बीतती हुई आयुका ध्यान नहीं रखता है । (१५) हे राजन् ! भले ही माता द्वारा पकड़ा हुआ हो अथवा सैकड़ों आयुधों द्वारा रक्षित हो, फिर भी अकृतार्थ मनुष्य मृत्युके द्वारा हरण किया जाता है । (१६) हे स्वामी ! अनन्त संसारमें शरीरी जीवने जो स्वजनसमूह पाये हैं वे सिन्धु ओर सागरकी रेतसे भी कहीं अधिक हैं । (१७) पापमें आसक्त जीवने नरकों में ताँबे
१. ० रसुहडा अं० - प्रत्य• । २. विहीए म० मु० । ३. ० थावियमइकुसलो मु० । ४. चइयं प्रत्य० । ५. ते एत्थ - प्रत्य• । ६. अन्नं तु मयसमाणं - मु० । ७. ० ण य सोयइ चेव प्रत्य० । ८. ०सुरं पिते० - प्रत्य० । ६. ०ण वि सं० - प्रत्य• । १०. सयणो भाई सरी० - प्रत्य० ।
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