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१११. रामविप्पलाव विहाणपव्वं
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अह कालगयसमाणे, सेणिय ! नारायणे जुगपहाणे । रामेण सयलरज्जं, बन्धवनेहेण परिचतं ॥ लच्छीहरस्स देह, सुरहिसुगन्धं सहावेओ मउयं । जीएण वि परिमुक्कं न मुयइ पउमो सिणेहेणं ॥ अग्घायइ परिचुम्बइ, ठवेइ अङ्के पुणो फुसइ अङ्गं । रुयइ महासोगाणलसंतत्तो राहवो अहियं ॥ ३ ॥ हा कह मोत्तूण मए, एक्कागिं दुक्खसागरनिमगं । अहिलससि वच्छ ! गन्तुं, सिणेहरहिओ इव निरुत्तं ? ॥ ४ ॥ उहि देव! तुरियं तवोवणं मज्झ पत्थिया पुत्ता । जाव न वि जन्ति दूरं, ताव य आणेहि गन्तूणं ॥ ५ ॥ धीर ! तुमे रहियाओ, अइगाढं दुक्खियाओ महिलाओ । लोलन्ति धरणिवट्टे, कलुणपलावं कुणन्तीओ ॥ वियलियकुण्डलहारं, चूडामणिमेहलाई यं एयं । जुवइनणं न निवारसि, वच्छय ! अहियं विलवमाणं ॥ ७ ॥ उट्ठेहि सयणवच्छल !, वाया मे देहि विलवमाणस्स । किं व अकारणकुविओ, हरसि मुहं दोसरहियस्स ! ॥ ८ ॥ न तहा दहइ निदाहो, दिवायरो हुयवहो व पज्जलिओ । नह दहइ निरवसेस, देहं एक्कोयरविओगो ॥ ९॥ किं वा करेमि वच्छय ! ? कत्तो वच्चामि हं तुमे रहिओ ? । ठाणं पेच्छामि न तं निवाणं जत्थ उ लहामि ॥१०॥ हा वच्छ ! मुञ्चसु इमं, कोवं सोमो य होहि संखेवं । संपइ अणगाराणं, वट्टइ वेला महरिसीणं ॥ ११ ॥ अत्थाओ दिवसयरो, लच्छीहर ! किं न पेच्छसि इमाई । मउलन्ति कुवलयाई, वियसन्ति य कुमुयसण्डाई ! ॥ १२ ॥ अत्थरह लहु सेज्जं, काऊण भुयन्तरम्मि सोमित्ति । सेवामि जेण निदं परिवज्जियसेसवावारो ॥ १३ ॥ संपुष्णचन्दसरिसं, आसि तुमं अइमणोहरं वयणं । कज्जेण केण सुपुरिस !, संपइ विगयप्पभं जायं ? ॥ १४ ॥
१११.
रामका विलाप
युगप्रधान नारायण लक्ष्मणके मरने पर बन्धुस्नेहके कारण रामने सारा राज्य छोड़ दिया । (२) लक्ष्मणकी सुगन्धित महकवाली और स्वभावसे ही कोमल देहको प्राणोंसे रहित होने पर भी राम स्नेहवश नहीं छोड़ते थे । (२) शोकाभिसे अत्यन्त सन्तप्त राम उसे सूँघते थे, चूमते थे, गोदमें रखते थे, फिर अंगका स्पर्श करते थे और बहुत रोते थे । ३) हा वत्स ! दुःखसागरमें निमग्न एकाकी मुझे छोड़कर स्नेहरहित तुमने चुपचाप कैसे जाने की इच्छा की १ (४) हे देव ! जल्दी उठो । मेरे पुत्र तपोवन में गये हैं । जब तक वे दूर नहीं निकल जाते तब तक जा करके तुम उन्हें ले आओ । (५) हे धीर ! तुम्हारे बिना अत्यन्त दुःखित स्त्रियाँ करुण प्रलाप करती हुई ज़मीन पर लोटती हैं । (६) हे वत्स ! कुण्डल और हार तथा चूड़ामणि और मेखला आदिसे रहित इन अत्यधिक रोती हुई युवतियों को तुम क्यों नहीं रोकते ? (७) हे स्वजनवत्सल ! तुम उठो और रोते हुए मेरे साथ बातें करो । निष्कारण कुपित तुमने दोषरहित मेरा सुख क्यों हर लिया है ? (८) आग की तरह जलता हुआ ग्रीष्मकाल अथवा सूर्य वैसा नहीं जलाता जैसा सहोदर भाईका वियोग सारी देहको जलाता है । (६) हे वत्स ! तुम्हारे विना मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? ऐसा कोई स्थान नहीं दीखता जहाँ मैं शान्ति पाऊँ । (१०) हा वत्स ! इस क्रोधका त्याग करो और थोड़ा-सा सौम्य बनो । अब अनगार महपियों की आगमन - वेला है । (११) हे लक्ष्मण ! सूर्य अस्त हुआ है। क्या तुम नहीं देखते कि कमल बन्द हो रहे हैं और कुमुदवन खिल रहे हैं। (१२) जल्दी ही सेज बिछाओ, जिससे बाकी व्यापारों को छोड़कर लक्ष्मण को अपने बाहुमें लपेटकर मैं निद्राका सेवन करूँ । (१३) हे सुपुरुष ! पूर्ण चन्द्रमाके समान तुम्हारा अतिसुन्दर मुख था। अब वह किस लिए कान्तिहीन हो गया है ? (१४) तुम्हारे मनमें जो
१. ० वअइरम्मं - प्रत्य• । २. ० इयं सव्वं । जुवइजणं ण वि वारसि - प्रत्य• । ३. • सि मुहं दो० मु० । ४. अच्छरह -- प्रत्य• । ५. परिसे सिय से ० - प्रत्य• ।
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