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११०.३०] ११०. लवणंऽङ्कुसतवोवणपवेसविहाणपर्व
५७१ वरकमलकोमलङ्गी, अवगृहइ कावि निभरसिणेहं । चलणेसु पडइ अन्ना, पचिय सामी! कउल्लावा ॥ १५ ॥ घेत्तण काइ वीणं, तस्स य गुणकित्तणं महुरसंह । गायइ वरगन्धर्व, दइयस्स पसायजणणटुं ॥ १६ ॥ अवगूहिऊण काई, चुम्बइ गण्डत्थलं मणभिरामं । जंपइ पुणो पुणो च्चिय, अम्ह पहू! देहि उल्लावं ॥ १७ ॥ संपुण्णचन्दवयणा, कयनेवच्छा कडक्खविच्छोहं । नच्चइ कावि मणहरं, पियस्स पुरओ ससब्भावं ॥ १८ ॥ एयाणि य अन्नाणि य, ताण कुणन्तीण चेट्टियसयाई । जायं निरत्ययं तं, जीवियरहियम्मि कन्तम्मि ॥ १९ ॥ चारियमुहाउ सुणिउं, तं वित्तन्तं ससंभमो रामो। तं लक्खणस्स भवणं, तुरन्तो चेव संपत्तो ॥ २० ॥ अन्तेउरं पविट्ठो, पेच्छइ विगयप्पभं सिरीरहियं । लच्छीहरस्सा वयणं, पभायससिसन्निहायारं ॥ २१ ॥ चिन्तेइ तओ पउमो केण वि कज्जेण मज्झ चकहरो । रुट्टो अब्भुट्टाणं, न देइ चिट्ठइ अविणयङ्गो ।। २२ ।। विरलक्कमेसु गन्तुं, अग्घायइ मत्थए घणसिणेहं । पउमो भणइ कणिटुं, कि मज्झ न देसि उल्लावं ? ॥ २३ ॥ चिन्धेहि जाणि ऊण य, गयजीयं लक्खणं तहावत्थं । तह वि य तं जीवन्तं, सो मन्नइ निभरसिणेहो ॥२४॥ न य हसइ नेव जंपइ, न चेव उस्ससइ चेट्टपरिहीणो । दिट्टो य तहावत्थो, सोमित्ती रामदेवेणं ॥ २५ ॥ मुच्छागओ विउद्धो, पउमो परिमुसइ तस्स अङ्गाई । नक्खक्खयं पि एक्कं, न य पेच्छइ मग्गमाणो वि ॥२६॥ एयावत्थस्स तओ, वेज्जा सद्दाविऊण पउमाभो । कारावेइ तिगिच्छं, मन्तेहिं तहोसहेहिं पि ॥ २७ ।। वेजगणेहि जया सो, मन्तोसहिसंजुएहि विबिहेहिं । न य पडिवन्नो चेहूँ, तओ गओ रावो मुच्छं ॥ २८ ॥ कह कह वि समासत्थो, कुणइ, पलावं तओ य रोवन्तो । रामो ससुनयणो, दिट्ठो जुबईहिं दीणमुहो ॥२९॥
एयन्तरम्मि ताओ, सबाओ लक्खणस्स महिलाओ । रोवन्ति विहलविम्भलमणाओ अङ्ग हणन्तीओ ॥ ३० ॥ दुसरी 'हे नाथ ! मैं आपके आश्रयमें आई हूँ' ऐसा कहकर चरणोंमें गिरने लगी। (१५) कोई मीठे स्वरवाली स्त्री वीणा लेकर पतिको प्रसन्न करनेके लिए जिसमें उसके गुणोंका वर्णन है ऐसा उत्तम गीत गाने लगी। (१६) कोई आलिंगन देकर मनोहर गण्डस्थलको चूमती थी ओर बार-बार कहती थी कि, हे प्रभो! हमारे साथ बातचीत तो करो। (१७) पूर्ण चन्द्रके समान वदनवाली कोई स्त्री वस्त्र परिधान करके मनोहर कटाक्ष-विक्षेप करती हुई प्रियके सम्मुख सुन्दर भावके साथ नाचती थी। (१८) इन तथा दूसरी सैकड़ों प्रकारकी चेष्टाएँ करनेवाली उन स्त्रियोंकी सब चेष्टाएँ निर्जीव पतिके सम्मुख निरर्थक हुई । (१६)
गुप्तचरोंके मुखसे उस वृत्तान्तको सुनकर संभ्रमयुक्त राम जल्दी ही लक्ष्मणके भवनमें आ पहुँचे। (२०) अन्तःपुरमें प्रवेश करके उन्होंने प्रभाहीन, श्रीरहित और प्रभातकालीन चन्द्रमाके जैसे आकारवाले लक्ष्मणके मुखको देखा। (२१) तब राम सोचने लगे कि किस कारण चक्रधर लक्ष्मण मुझ पर रुष्ट हुआ है ? वह आदरपूर्वक क्यों खड़ा नहीं होता और शरीरमें अविनय धारण करके बैठा है ? (२२) थोड़े कदम आगे जाकर और अत्यन्त स्नेहसे सिरको सूंघकर रामने छोटे भाईसे कहा कि मेरे साथ बात क्यों नहीं करता ? (२३) चिह्नोंसे उस अवस्था में बैठे हुए लक्ष्मणको निष्प्राण जानकर भी स्नेहसे परिपूर्ण वे उसे जीवित ही मानते थे। (२४) न तो वह हँसता था, न बोलता था, न साँस लेता था। रामने लक्ष्मणको चेटारहित और उसी अवस्था में बैठा हुआ देखा। (२५) इससे वे बेहोश हो गये। होशमें आने पर रामने उसके अंगोंको सहलाया। हूँढ़ने पर भी एक नखक्षत तक उन्होंने नहीं देखा । (२६) तब रामने वैद्योंको बुलाकर ऐसी अवस्था में स्थित उसकी मंत्रों तथा औषधियोंसे चिकित्सा करवाई । (२७) विविध मंत्र व औषधियोंके प्रयोग से वैद्यगणों के द्वारा जब वह होशमें नहीं आया तब राम मूर्छित हो गये । (२८) किसी तरह आश्वस्त होने पर वे रोते हुए प्रलाप करने लगे। युवतियोंने गमको आँखों में आँसूओंसे युक्त तथा दीनवदन देखा । (२९)
उस समय लक्ष्मणकी वे सब भार्याएँ मनमें विह्वल हो अंगको पीटती हुई रोने लगी। (३०) हा नाथ ! महायश! १. सदा । गा०-मु०। २. उणं, ग०-प्रत्य० ।
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