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१०६.२६ ]
१०६. सकसकहाविहाणपव्वं
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वो अणाइनिहणो, सकम्मपवणाहओ परिभ्रमन्तो । कह कह वि माणुसतं, पत्तो न कुणेइ निणधम्मं ॥ मिच्छादंसणचरियं, काऊणं नइ वि लहइ देवत्तं । तह वि य चुओ समाणो', मुज्झे इह माणुसे नम्मे ॥ निन्दइ जिणवरधम्मं, मिच्छत्तो नाण- दंसणविहूणो । सो हिण्डर संसारे, दुक्खसहस्साइं अणुहोन्तो ॥ पेच्छह महिड्डियस्स वि, सुनाणजुत्तस्स माणुसे नम्मे । दुलहा उ हवइ बोही, किं पुण अन्नाणजुत्तस्स ! ॥ इन्दो भणइ कया हैं, बोहिं लद्धूण माणुसे नम्मे । कम्मट्ठविप्पमुको, परमपयं चैव पाविस्सं? ॥ तं भइ सुरो एक्को, नइ तुज्झ वि एरिसी हवइ बुद्धी । अम्हारिसाण नियमा, माणुसनम्मे विमुज्झिहि ॥ २० ॥ इन्द्रं महिड्डितं, बम्भविमाणे सुरं चुयसमाणं । रामं किं च न पेच्छह, माणुसभोगेसु अइमूढं ? ॥ २१ ॥ तो भाइ देवराया, सबाण वि बन्धणाण दूरेणं । कढिणो उ नेहबन्धो, संसारत्थाण सत्ताणं ॥ २२ ॥ नियलेहि पूरिओ च्चिय, वच्चइ पुरिसो नहिच्छियं देतं । एकं पि अङ्गुलमिणं, न जाइ घणनेहपडिबद्धो ॥ रामस्स निययकालं, सोमित्ती घणसिणेहमणुरतो । सो वि य तस्स विओगे, मुञ्चइ जीयं अइसमत्थो ॥ सो तं लच्छिनिकेयं, पउमो न य मुयइ नेहपडिबद्धो । कम्मस्स य उदएणं, कालं चिय नेइ मइमूढो ॥ सुरवइभणियं जं तच्चमग्गाणुरतं, निणवरगुणगहणं सुप्पसत्थं पवित्तं । सुणिय विबुहसङ्घा तं च इन्दं नमेउ, अइविमलसरोरा जन्ति सं सं निकेयं ॥ २६ ॥ ॥ इइ पउमचरिए सक्कसंकहाविहाणं नाम नवुत्तरसयं पव्धं समत्तं ॥
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होकर भटकता हुआ किसी तरहसे मानवभव प्राप्त करके भी जिनधर्मका आचरण नहीं करता । (१५) मिध्यात्व से युक्त तप आदि आचरण करके यद्यपि देवत्व प्राप्त होता है, तथापि च्युत होने पर इस मनुष्य जन्ममें वह पुनः मोहित होता है । (१६) ज्ञान और दर्शनसे रहित जो मिध्यात्वी जिनधर्मकी निन्दा करता है वह हजारों दुखोंका अनुभव करता हुआ संसारमें भटकता है । (१७) देखो तो, महर्धिक सुज्ञानयुक्त मनुष्य जन्ममें भी बोधि दुर्लभ होती है, तो फिर अज्ञानयुक्त प्राणीका तो कहना ही क्या ? (१८) तब इन्द्र कहने लगा कि कब मैं मानव जन्ममें बोधि प्राप्त करके और आठों कमोंसे विमुक्त हो परम पद प्राप्त करूँगा ? (१६)
उसे एक देवने कहा कि यदि आपकी भी ऐसी मति है तो फिर हम जैसोंकी बुद्धि तो मनुष्य जन्ममें नियमतः मोहित हो जाएगी । (२०) ब्रह्म विमानमें अत्यन्त ऋद्धिसम्पन्न सुरेन्द्रके च्युत होनपर मानव भोगों में अत्यन्त मूढ़ रामको क्या आप नहीं देखते १ (२१) इस पर देवेन्द्रने कहा कि संसारस्थ जीवोंके लिए सब बन्धनों की अपेक्षा स्नेहबन्धन अत्यन्त दृढ़ होता है । (२२) जंजीरोंसे बँधा हुआ मनुष्य इच्छानुसार देशमें जा सकता है, पर घने स्नेहसे जकड़ा हुआ मनुष्य एक अंगुल भी नहीं जा सकता । (२३) रामके ऊपर लक्ष्मण सर्वदा घने प्रेमसे अनुरक्त रहता है । वे समर्थ राम भी उसके वियोग में प्राणों का त्याग कर सकते हैं । (२४) स्नेहसे जकड़े हुए वे राम लक्ष्मणको नहीं छोड़ते और कर्मके उदयसे मतिमूढ़ हो समय बिताते हैं । (२५) देवेन्द्रने जो सत्यमार्ग में अनुरागपूर्ण, जिनवरके गुणोंसे व्याप्त, अत्यन्त प्रशस्त और पवित्र वचन कहे उसे सुनकर अतिनिर्मल शरीरवाले देवोंके संघ इन्द्रको प्रणाम करके अपने अपने भवनकी ओर चले गये । (२६)
|| पद्मचरितमें इन्द्रके वार्तालापका विधान नामक एक सौ नवाँ पर्व समाप्त हुआ ।
2-14
१.
•णो सिज्झइ इह मु० । २. सुरस चइयरस माणुसे मु० ।
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