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१०८. हणुवनिव्वाणगमणविहाणपब्वं भणइ तओ हणुवन्तो, परिहिण्डन्तस्स मज्झ संसारे । महिलाण सहस्साई, गयाई कालेण बहुयाई ॥ ३७॥ न य माया नेव पिया, न पुत्तदारा इहं मरन्तस्स । पुरिसस्स परिचाणं, न कुणन्ति जहा कुणइ धम्मो ॥३८॥ तं एव अणुहवे, नरयतिरिक्खेसु दारुणं दुक्खं । कह पुण जाणतो हं, करेमि महिलासु सह नेहं ॥ ३९ ॥ संसारम्मि अणन्ते. भीओ हं जाइयव-मरणाणं । संपइ लएमि दिक्ख, मरिसह मे अविणयं सत्वं ॥ ४० ॥ मेरुं पिव थिरगरुयं, हिययं नाऊण तस्स महिलाओ। ताहे कुणन्ति परमं, अक्कन्दं लोलनयणाओ ॥ ११ ॥ आसासिऊण धीरो, जुवईओ ठाविउं सुयं रज्जे । निष्फिडइ विमाणाओ, विज्जाहरसुहडपरिकिण्णो ॥ ४२ ॥ आरुहिय पुरिसजाणं, नाणाविहरयणकिरणपज्जलियं । संपत्थिओ कमेणं, उज्जाणत्थं जिणाययणं ॥ ४३ ॥ 'काऊणं बन्दणयं, जिणभवणे साहवं सुहनिविटें । नामेण धम्मरयणं, तं पणमइ मारुई तुट्ठो ॥ ४४ ॥ काऊण य किइकम्म, हणुवो तो भणइ मुणिवरं एत्तो । भयवं! होहि गुरू मे, विहेहि संखेवओ दिक्खं ॥४५॥ अणुमन्निओ गुरूणं, ताहे मउडं सकुण्डलाहरणं । देइ सुयस्स नरिन्दो, संजममग्गे कउच्छाहो ॥ ४६॥ *परिचत्तकामभोगो, कुणइ सिरे मारुई तओ लोयं । हणुवन्तो पवइओ, पासे मुणिधम्मरयणस्स ॥ ४७ ।। पन्नासा सत्त सया, संवेगपरायणा य नरवइणो । पवइया खायनसा, चारणसमणं पणमिऊणं ॥ १८ ॥ हणुयस्स महिलियाओ, सवाओ दइयसोगदुहियाओ । लच्छीमईऍ सयासे, नायाओ चेव समणीओ ॥ ४९ ।। सिरिसेलो कम्मवणं, सर्व झाणाणलेण दहिऊण तओ। केवललद्धाइसओ, संपत्तो विमलनिम्मलं परमपयं ॥ ५० ॥
।। इइ पउमचरिए हणुवनिव्वाणगमणं नाम अठुत्तरसयं पव्वं समत्तं ।।
इस पर हनुमानने कहाकि संसारमें घूमते हुए मेरी अनेक सहस्र महिलाएँ कालक्रममें हो चुकी हैं । (३७) इस लोकमें मरते हुए पुरुषका परित्राण वैसा न माता, न पिता, न पुत्र और न पत्नी करते हैं जैसा धर्म करता है। (३८) नरक और तिर्यच गतियोंमें वैसा दारुण दुःख अनुभव करके अभिज्ञ मैं कैसे स्त्रियोंके साथ स्नेह कर सकता हूँ ? (३६) जन्म-मरणके अनन्त संसारसे भयभीत में अब दीक्षा लेता हूँ। मेरा सारा अविनय क्षमा मरो। (४०)
मेरुकी भाँति अत्यन्त स्थिर उसका हृदय जानकर चंचल नेत्रोंवाली स्त्रियाँ घोर आक्रन्द करने लगीं। (४१) युवतियोंको आश्वासन देकर और पुत्रको राज्यपर स्थापित करके विद्याधर सुभटोंसे घिरा हुआ वह धीर विमानमेंसे निकला। (४२) पुरुष द्वारा चलाये जाते और नानाविध रत्नोंकी किरणोंसे देदीप्यमान वाहन पर आरूढ़ होकर उसने उद्यानमें आये हुए जिनमन्दिरकी ओर प्रस्थान किया। (४३) जिनभवनमें वन्दन करके शान्तिसे बैठे हुए धर्मरत्न नामके मुनिको हनुमानने प्रसन्न होकर प्रणाम किया। (४४) हनुमानने प्रणाम करके मुनिवरसे कहा कि भगवन् ! आप मेरे गुरु हो और शीघ्र ही मुझे दीक्षा दें। (४५) तब गुरु द्वारा अनुमति मिलने पर संयम मार्गमें उत्साही राजा हनुमानने मुकुट और कुण्डलोंके साथ आभूषण पुत्रको दे दिये । (४३) बादमें कामभोगोंका त्याग करनेवाले हनुमानने सिर परसे बालोंका लोंच किया और मुनि धर्मरत्नके पास दीक्षा ली। (४७) चारणश्रमणको प्रणाम करके संवेगपरायण तथा ख्यातयश सात सौ पचास राजाओंने दीक्षा ली। (४८) पतिके शोकसे दुःखित हनुमान की सब पत्नियाँ लक्ष्मीमतीके पास श्रमणियाँ हो गई। (४९) इसके पश्चात् हनुमानने कर्मरूपी वनको ध्यानरूपी अग्निसे जलाकर कैवल्यातिशय प्राप्त करके विमल और निर्मल परमपद-मोक्ष पाया।(५०)
॥ पद्मचरितमें हनुमानका निर्वाणगमन नामका एक सौ आठवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥
१. काऊण वंदणविहि, जिण-प्रत्य०। २. दाहिण-वामकरेहि, कुणइ-प्रत्य।
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