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पउमचरियं
[ १०८. २१
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थुणिऊण नहिच्छाए, विणिग्गओ निणहराउ हणुवन्तो । पायक्खिणेइ मेरुं वन्दन्तो सिद्धभवणाई ॥ २१ ॥ भरहं एन्तस्स तओ, कमेण अत्थंगओ दियसनाहो । हणुवस्स सयलसेनं, ठियं च सुरदुन्दुहिगिरिम्मि ॥ २२ ॥ सो तत्थ बहुलपक्खे, गयणयलं मारुई पलोयन्तो । पेच्छइ घणञ्जणनिहं, तारासु समन्तओ छन्नं ॥ २३ ॥ चिन्तेइ तो मणेणं, जह एयं चन्दविरहियं गयणं । न य सोहइ कुलगयणं, तहा विणा पुरिसचन्देणं ॥ २४ ॥ तंत्थि नए सले, ठाणं तिलतुसतिभागमेत्तं पि । जत्थ न कोलइ मच्च, सच्छन्दो सुरखरेहिं पि ॥ २५ ॥ नइ देवाण वि एसा, चवणावत्था उ हवइ सबाणं । अम्हारिसाण संपइ, का एत्थ कहा मणूसाणं ! ॥ २६ ॥ भन्ति जत्थ हत्थी, मत्ता गिरिसिहर सन्निहा गरुया । तो एत्थ किं व भण्णइ ?, पढमं चिय अवहिया ससया ॥ २७ ॥ अन्नाणमोहिएणं, पञ्चिन्दियवसगएण जीवेणं । तं नत्थि महादुक्खं, जं नऽणुहूयं भ्रमन्तेणं ॥ महिलाकरेणुयाणं, लद्धो घरवारिनियलपडिबद्धो । अणुहवइ तत्थ दुक्खं, पुरिसगओ वम्महासचो ॥ पासेण पञ्जरेण य, बज्झन्ति चउप्पया य पक्खी य । इह जुवइपअरेणं, बद्धा पुरिसा किलिस्सन्ति ॥ किंपागफलसरिच्छा, भोगा पमुहे हवन्ति गुंलमहुरा । ते चेव उ परिणामे, नायन्ति य विसमविससरिसा ॥ तं जाणिऊन एवं, असासयं अधुवं चलं जीयं । अवहत्थिऊण भोगे, पबज्जं गिण्हिमो अज्जं ॥ याणि य अन्नाणि य, परिचिन्तेन्तस्स पवणपुत्तस्स । रयणी कमेण झीणा, पभासयन्तो रवी उइओ ॥ ३३ ॥ पडिबुद्धो पवणसुओ, भणइ तओ परियणं पियाओ य । धम्माभिमुहस्स महं, निसुणेह परिप्फुडं वयणं ॥ ३४॥ वसिऊण सुइरकालं, माणुसनम्मम्मि बन्धवेहिं समं । अवसेण विप्पओगो, हवइ य मा अद्धि कुणह ॥ ३५ ॥ ता भणन्ति हवं, महिलाओ महुरमम्मणगिराओ । मा मुञ्चसु नाह ! तुमं, अम्हे एत्थं असरणाओ ॥ ३६॥ करनेवाले विविध प्रकारके स्तुतिमंगलोंसे स्तुति की । ( २० ) इच्छानुसार स्तुति करके जिनमन्दिरमें से बाहर निकले हुए हनुमानने सिद्धभवनों को वन्दन करते हुए मेरुकी प्रदक्षिणा दी । (२१) जब हनुमान भरत क्षेत्रकी ओर अनुक्रमसे आ रहा था तब सूर्य अस्त हो गया। हनुमानके सारे सैन्यने सुरदुन्दुभि पर्वत पर डेरा डाला । (२२) हनुमान उस कृष्णपक्ष में आकाशको देखने लगा । चारों ओर ताराओंसे आच्छादित और घने अंजनके जैसे काले आकाशको उसने देखा । (२३) वह मनमें सोचने लगा कि जिस तरह चन्द्रसे रहित यह आकाश सुहाता नहीं है उसी तरह कुलरूपी गगन भी पुरुषरूपी चन्द्रके विना नहीं सुहाता । (२४) सारे जगतमें तिल और भूसीके तीसरे भाग जितना भी स्थान नहीं है जहाँ मृत्यु स्वच्छंदरूपसे क्रीड़ा न करती हो । उत्तम देवों के साथ भी वह क्रीड़ा करती है । (२५) यदि सभी देवोंकी यह च्यवनावस्था (मृत्यु) होती है, तो फिर हम जैसे मनुष्यों की तो बात ही क्या ! (२६) जिनमें पर्वत के शिखरके समान बड़े भारी मदोन्मत्त हाथी भी बह जायँ तो फिर खरगोश जैसे पहले ही बह जायँ तो उसमें कहना ही क्या ! (२७) अज्ञान से मोहित और पाँचों इन्द्रियोंके वशीभूत जीवने ऐसा कोई महादुःख नहीं है जो संसारमें घूमते हुए अनुभव न किया हो । ( २८ ) स्त्रीरूपी हथनियोंमें लुब्ध घरबाररूपी जंजीरसे जकड़ा गया और काममें आसक्त पुरुषगत जीव वहाँ (संसार में) दुःख अनुभव करता है । (२६) चौपाये और पक्षी बन्धन और पिंजरे में पकड़े जाते हैं । यहाँ युवतीरूपी पिंजड़े में जकड़े गये पुरुष दुःख उठाते हैं । (३०) किंपाक के फल के समान भोग प्रथम गुड जैसे मधुर होते हैं परिणाम में वे ही विषम विषके जैसे हो जाते हैं । (३१) इस तरह जीवनको अशाश्वत, अधव और चंचल जानकर और भोगोंका त्यागकर 'आज प्रवज्या ग्रहण करूँगा । (३२) ऐसा तथा दूसरा विचार करते हुए हनुमान की रात क्रमसे व्यतीत हो गई और प्रकाशित करनेवाला सूर्य उदित हुआ। (३३)
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प्रतिबुद्ध हनुमानने तब परिजन एवं प्रियाओंसे कहा कि धर्म की ओर अभिमुख मेरे स्पष्ट वचन तुम सुनो । (३४) सुचिर काल पर्यन्त मनुष्यजन्ममें बन्धुजनोंके साथ रहनेके बाद अवश्य वियोग होता है । अतः तुम अधीर मत होवो । (३५) तब मधुर और मर्मभाषी महिलाओंने हनुमानसे कहा कि, हे नाथ! यहाँ पर असहाय हम सबका तुम त्याग मतकरो । ( ३६ ) १. दिवस - प्रत्य० । २. गुणम० - मु
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