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________________ पउमचरियं [ १०८. २१ ३० ॥ ३१ ॥ ३२ ॥ थुणिऊण नहिच्छाए, विणिग्गओ निणहराउ हणुवन्तो । पायक्खिणेइ मेरुं वन्दन्तो सिद्धभवणाई ॥ २१ ॥ भरहं एन्तस्स तओ, कमेण अत्थंगओ दियसनाहो । हणुवस्स सयलसेनं, ठियं च सुरदुन्दुहिगिरिम्मि ॥ २२ ॥ सो तत्थ बहुलपक्खे, गयणयलं मारुई पलोयन्तो । पेच्छइ घणञ्जणनिहं, तारासु समन्तओ छन्नं ॥ २३ ॥ चिन्तेइ तो मणेणं, जह एयं चन्दविरहियं गयणं । न य सोहइ कुलगयणं, तहा विणा पुरिसचन्देणं ॥ २४ ॥ तंत्थि नए सले, ठाणं तिलतुसतिभागमेत्तं पि । जत्थ न कोलइ मच्च, सच्छन्दो सुरखरेहिं पि ॥ २५ ॥ नइ देवाण वि एसा, चवणावत्था उ हवइ सबाणं । अम्हारिसाण संपइ, का एत्थ कहा मणूसाणं ! ॥ २६ ॥ भन्ति जत्थ हत्थी, मत्ता गिरिसिहर सन्निहा गरुया । तो एत्थ किं व भण्णइ ?, पढमं चिय अवहिया ससया ॥ २७ ॥ अन्नाणमोहिएणं, पञ्चिन्दियवसगएण जीवेणं । तं नत्थि महादुक्खं, जं नऽणुहूयं भ्रमन्तेणं ॥ महिलाकरेणुयाणं, लद्धो घरवारिनियलपडिबद्धो । अणुहवइ तत्थ दुक्खं, पुरिसगओ वम्महासचो ॥ पासेण पञ्जरेण य, बज्झन्ति चउप्पया य पक्खी य । इह जुवइपअरेणं, बद्धा पुरिसा किलिस्सन्ति ॥ किंपागफलसरिच्छा, भोगा पमुहे हवन्ति गुंलमहुरा । ते चेव उ परिणामे, नायन्ति य विसमविससरिसा ॥ तं जाणिऊन एवं, असासयं अधुवं चलं जीयं । अवहत्थिऊण भोगे, पबज्जं गिण्हिमो अज्जं ॥ याणि य अन्नाणि य, परिचिन्तेन्तस्स पवणपुत्तस्स । रयणी कमेण झीणा, पभासयन्तो रवी उइओ ॥ ३३ ॥ पडिबुद्धो पवणसुओ, भणइ तओ परियणं पियाओ य । धम्माभिमुहस्स महं, निसुणेह परिप्फुडं वयणं ॥ ३४॥ वसिऊण सुइरकालं, माणुसनम्मम्मि बन्धवेहिं समं । अवसेण विप्पओगो, हवइ य मा अद्धि कुणह ॥ ३५ ॥ ता भणन्ति हवं, महिलाओ महुरमम्मणगिराओ । मा मुञ्चसु नाह ! तुमं, अम्हे एत्थं असरणाओ ॥ ३६॥ करनेवाले विविध प्रकारके स्तुतिमंगलोंसे स्तुति की । ( २० ) इच्छानुसार स्तुति करके जिनमन्दिरमें से बाहर निकले हुए हनुमानने सिद्धभवनों को वन्दन करते हुए मेरुकी प्रदक्षिणा दी । (२१) जब हनुमान भरत क्षेत्रकी ओर अनुक्रमसे आ रहा था तब सूर्य अस्त हो गया। हनुमानके सारे सैन्यने सुरदुन्दुभि पर्वत पर डेरा डाला । (२२) हनुमान उस कृष्णपक्ष में आकाशको देखने लगा । चारों ओर ताराओंसे आच्छादित और घने अंजनके जैसे काले आकाशको उसने देखा । (२३) वह मनमें सोचने लगा कि जिस तरह चन्द्रसे रहित यह आकाश सुहाता नहीं है उसी तरह कुलरूपी गगन भी पुरुषरूपी चन्द्रके विना नहीं सुहाता । (२४) सारे जगतमें तिल और भूसीके तीसरे भाग जितना भी स्थान नहीं है जहाँ मृत्यु स्वच्छंदरूपसे क्रीड़ा न करती हो । उत्तम देवों के साथ भी वह क्रीड़ा करती है । (२५) यदि सभी देवोंकी यह च्यवनावस्था (मृत्यु) होती है, तो फिर हम जैसे मनुष्यों की तो बात ही क्या ! (२६) जिनमें पर्वत के शिखरके समान बड़े भारी मदोन्मत्त हाथी भी बह जायँ तो फिर खरगोश जैसे पहले ही बह जायँ तो उसमें कहना ही क्या ! (२७) अज्ञान से मोहित और पाँचों इन्द्रियोंके वशीभूत जीवने ऐसा कोई महादुःख नहीं है जो संसारमें घूमते हुए अनुभव न किया हो । ( २८ ) स्त्रीरूपी हथनियोंमें लुब्ध घरबाररूपी जंजीरसे जकड़ा गया और काममें आसक्त पुरुषगत जीव वहाँ (संसार में) दुःख अनुभव करता है । (२६) चौपाये और पक्षी बन्धन और पिंजरे में पकड़े जाते हैं । यहाँ युवतीरूपी पिंजड़े में जकड़े गये पुरुष दुःख उठाते हैं । (३०) किंपाक के फल के समान भोग प्रथम गुड जैसे मधुर होते हैं परिणाम में वे ही विषम विषके जैसे हो जाते हैं । (३१) इस तरह जीवनको अशाश्वत, अधव और चंचल जानकर और भोगोंका त्यागकर 'आज प्रवज्या ग्रहण करूँगा । (३२) ऐसा तथा दूसरा विचार करते हुए हनुमान की रात क्रमसे व्यतीत हो गई और प्रकाशित करनेवाला सूर्य उदित हुआ। (३३) ५६६ प्रतिबुद्ध हनुमानने तब परिजन एवं प्रियाओंसे कहा कि धर्म की ओर अभिमुख मेरे स्पष्ट वचन तुम सुनो । (३४) सुचिर काल पर्यन्त मनुष्यजन्ममें बन्धुजनोंके साथ रहनेके बाद अवश्य वियोग होता है । अतः तुम अधीर मत होवो । (३५) तब मधुर और मर्मभाषी महिलाओंने हनुमानसे कहा कि, हे नाथ! यहाँ पर असहाय हम सबका तुम त्याग मतकरो । ( ३६ ) १. दिवस - प्रत्य० । २. गुणम० - मु Jain Education International २८ ॥ २९ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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