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________________ १०८.२०] १०८. हणुवणिव्वाणगमणपव्वं ५६५ उप्पइओ गयणयले, वच्चइ मणपवणदच्छपरिहत्थो । कुलपबयाण उवरिं, अभिवन्दन्तो जिणहराई ॥ ५॥ संपत्तो य नगवरं, रयणसिलाकणयसिहरसंघायं । नाणाविहदुमगहणं, चउकाणणमण्डियं रम्म ॥६॥ सो भणइ पेच्छ सुन्दरि !, नगरायस्सुवरि जिणहरं तुङ्गं । जगजगजगेन्तसोहं, उन्भासेन्तं दिसायक्कं ॥ ७॥ पन्नास जोयणाई, दोहं पणुवीस चेव वित्थिणं । रेहइ छत्तीसुच्चं, गिरिस्स मउडायए रम्मं ॥८॥ तवणिज्जुज्जल-निम्मलगोउरअइतुङ्गवियडपायार । धय-छत्त-पट्ट-चामर-लम्बूसा-ऽऽदरिस-मालई ॥ ९॥ एयाई पेच्छ कन्ते!, नाणाविहपायवोहछन्नाई । चचारि उववणाई, उवरुवरिं नगवरिन्दस्स ॥ १० ॥ घरणियले सालवणं च नन्दणं मेहलाएँ अइरम्म । तत्तो च्चिय सोमणसं, पण्डगपरिमण्डियं सिहरं ॥ ११ ॥ वरबउल-तिलय-चम्पय-असोय-पुन्नाय-नायमाईहिं । रेहन्ति पायवेहिं, कुसुमफलोणमियसाहेहिं ॥ १२ ॥ घणकुसुमगुच्छकेसरमयरन्दुद्दामसुरहिगन्धेणं । वासन्ति व दिसाओ, समन्तओ काणणवणाई ॥ १३ ॥ एएसु चउनिकाया, देवा कीलन्ति परियणसमग्गा । रइसागरोवगाढा, न सरन्ति निए वि हु विमाणे ॥ १४ ॥ एयाण उववणाणं, ठियाई मज्झम्मि चेइयघराई । तवणिज्जपिञ्जराई, बहुविहसुरसङ्घनमियाई ॥१५॥ अवइण्णो पवणसुओ, तत्थ विमाणाउ परियणसमग्गो । पायक्खिणं करेउ, पविसरइ तओ जिणागारं ॥ १६ ॥ ट्ठण सिद्धपडिमा, बहुलक्खणसंजुया दिणयराभा । पणमइ पहट्ठमणसो, कन्ताहिं समं पवणपुत्तो ॥ १७ ॥ मण-नयणहारिणीओ, हणुवस्स पियाउ कणयकमलेहिं । पूएन्ति सिद्धपडिमा, अन्नेहिं वि दिबकुसुमेहिं ॥१८॥ सयमेव पवणपुत्तो, पडिमाओ कुङ्कुमेण अच्चेउं । देइ वरसुरहिधूयं, बलिं च तिवाणुराएणं ॥ १९ ।। एत्तो वाणरमउली, अरहन्तं झाइऊण भावेणं । थुणइ थुइमङ्गलेहि, विविहेहिं पावमहणेहिं ।। २० ॥ कुलपर्वतोंके ऊपर आये हुए जिनमन्दिरोंमें वन्दन करता हुआ रत्नोंकी शिलाओं और सोनेके शिखरोंसे युक्त, नानाविध वृक्षोंसे व्याप्त और चार उद्यानोंसे मण्डित ऐसे एक सुन्दर पर्वतके पास आ पहुँचा। (५-६) उसने कहा कि, हे सुन्दरी ! पर्वतके ऊपर विशाल, जगमगाती शोभावाले और दिशाओंको प्रकाशित करनेवाले जिनमन्दिरको देखो। (७) पचास योजन लम्बा, पचीस योजन चौड़ा और छत्तीस योजन ऊँचा वह सुन्दर जिनमन्दिर पर्वतके मुकुट जैसा लगता है। (८) सोनेके उज्ज्वल और निर्मल गोपुर व अत्युन्नत विकट प्राकारवाला यह ध्वजा, छत्र, पट्ट, चामर, लम्बूष, दर्पण और मालासे शोभित है। (९) हे कान्ते! पर्वतोंमें श्रेष्ठ इस पर्वत पर ऊपर-ऊपर आये हुए तथा नानाविध वृक्षोंके समूहसे आच्छन्न इन चार उपवनोंको देख । (१०) धरातल पर शालवन, मध्यके भागमें अत्यन्त सुन्दर नन्दनवन, उससे ऊपर सौमनस वन है और शिखर पाण्डुक वनसे मण्डित है। (११) फूल और फलोंसे झुकी हुई शाखाओंवाले उत्तम बकुल, तिलक, चम्पक, अशोक, पुन्नाग और नाग आदि वृक्षों से वे शोभित हो रहे हैं। (१२) फूलोंके घने गच्छोंके केसरके मकरन्दकी तीव्र मीठी महकसे मानो बाग-बगीचे दिशाओंको चारों ओरसे सुगन्धित कर रहे हैं। (१३) इन उद्यानों में अपने परिजनों के साथ चारों निकायों के देव प्रेमसागरमें अवगाहन करके क्रीड़ा करते थे। वे अपने विमानोंको भी याद नहीं करते थे। (१४) इन उद्यानोंके बीच सोनेके बने होनेसे पीत वर्ण वाले तथा देवताओंके नानाविध संघों द्वारा प्रणत चैत्यगृह अवस्थित थे। (१५) परिजनके साथ पवनसुत हनुमान विमानमेंसे नीचे उतरा। प्रदक्षिणा करके उसने जिनमन्दिर में प्रवेश किया। (१६) नाना लक्षणोंसे युक्त और सूर्यके समान कान्तिवाली सिद्ध-प्रतिमाको देखकर मनमें हर्षित हनुमानने पत्नियोंके साथ वन्दन किया। (१७) हनुमानकी मन और आँखोंको हरण करनेवाली सुन्दरप्रियाओंने सोनेके कमलों तथा अन्य दिव्य पुष्पोंसे सिद्ध-प्रतिमाकी पूजा की। (१८) स्वयं हनुमानने ही केसरसे प्रतिमाओंकी पूजा करके तीव्र अनुराग वश उत्तम सुगन्धित धूप तथा बलि प्रदान की । (१६) तब वानरोंमें मुकुटके समान श्रेष्ठ हनुमानने भावपूर्वक अरिहन्तका ध्यान करके पापका नाश १. •त्तचारुचा.-प्रत्य० । २. उवरोवरि-प्रत्य०। ३. ण चच्चेउ-प्रत्य। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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