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पउमचरियं
११ ॥
अह अन्नया कयाई, पासाओवरि ठियस्स सयराहं । भामण्डलस्स असणी, पडिया य सिरे धगधगेन्ती ॥ १० ॥ जणयसुए कालगए, नाओ अन्तेउरे महाकन्दो | 'हाहाकार मुहरवो, पर्यालियनयणंविच्छड्डो ॥ जाणता वि पाई, अन्नं जम्मन्तरं धुवं पुरिसा । तह वि य कालक्खेवं, कुणन्ति विसयामिसासता ॥ खणभङ्गुरस्स कज्जे, इमस्स देहस्स साररहियस्स । पुरिसा करेन्ति पावं, जाणन्ता चैव सत्थाई ॥ किं कोरह सत्येहिं, अप्पाणो जेहि नेव उवसमिओ ? । एक्कपर्यं पि वरं तं जं निययमणं पसाएइ ॥ एवं जो दीहसुतं कुणइ इह नरो णेयवावारजुत्तो, निश्वं भोगाभिलासी सयणपरियणे तिबनेहाणुरतो । संसारं सो महन्तं परिभमइ चिरं घोरदुक्खं सहन्तो ।
तुम्हारा ! पत्थे ससियरविमले होहि धम्मेक्कचित्तो ॥ १५ ॥
॥ इइ पउमचरिए भामण्डलपरलोयगम णविहाणं नाम सत्तुत्तरसयं पव्वं समत्तं ॥
[ १०७.१०
१०८. हणुवणिव्वाणगमणपव्वं
तो मगहाहिवई !, सुणेहि हणुयस्स ताव वित्तन्तं । वरकण्णकुण्डलपुरे, भोगे चिय सेवमाणस्स ॥ १ ॥ जुवइ सहस्सेण समं, विमाणसिहरट्टिओ महिडीओ । लोलायन्तो विहरइ, अह अन्नया वसन्ते, संपत्ते जणमणोहरे काले । कोइलमहुरुग्गीए, चलिओ मेरुनगवरं, बन्दणभत्तीऍ चेइयहराणं । हणुओ परियणसहिओ,
महीऍ वरकाणणवणाईं ॥ २ ॥ महुयरमुञ्चन्तझंकारे ॥ ३ ॥ दिवविमाणे समारूढो ॥ ४ ॥
१२ ॥
१३ ॥
१४ ॥
कभी एक दिन प्रासादके ऊपर स्थित भामण्डलके सिर पर अकस्मात् धग धग करती हुई बिजली गिरी । (१०) Star भामण्डल के मरने पर अन्तःपुरमें हाहाकार से मुखरित और आँखों में से गिरते हुए आँसुओंसे व्याप्त ऐसा जबरदस्त आक्रन्द मच गया । (११) दूसरा जन्मान्तर अवश्य है ऐसा जानते हुए भी प्रमादी पुरुष विषयरूपी मांसमें आसक्त हो समय व्यतीत करते हैं । (१२) शास्त्रोंको जानते हुए भी इस क्षणभंगुर एवं सारहीन देहके लिए मनुष्य पाप करते हैं । (१३) जिनसे आत्मा उपशान्त न हो ऐसे शास्त्रोंसे क्या किया जाय ? वह एक शब्द भी अच्छा है जो अपने मनको प्रसन्न करता हो । (१४) इस तरह यहाँ पर अनेक व्यवसायोंमें युक्त जो मनुष्य दीर्घसूत्रता करता है और स्वजन-परिजनमें तीव्र स्नेहसे अनुरक्त होकर भोगोंकी नित्य अभिलाषा रखता है वह चिरकाल तक घोर दुःख सहनकर विशाल संसार में भटकता फिरता है । अतः हे राजन् ! प्रशस्त और चन्द्रमाके समान विमल धर्ममें एकाग्र बनो । (१५)
॥ पद्मचरित भामण्डलका परलोकगमन-विधान नामक एक सौ सातवाँ पर्व समाप्त हुआ ||
१०८. हनुमानका निर्वाणगमन
मगधाधिपति श्रेणिक ! तुम अब उत्तम कर्णकुण्डलपुरमें भोगोंका उपभोग करनेवाले हनुमानका वृत्तान्त सुनो । (१) एक हज़ार युवतियोंके साथ विमान के शिखर पर स्थित और बड़ी भारी ऋद्धिवाला वह पृथ्वी पर आये हुए सुन्दर बाग बगीचोंमें लीला पूर्वक विहार करता था । (२) एक दिन कोयलके द्वारा मधुर स्वरमें गाई जाती और भौरोंके भंकारसे कृत वसन्त ऋतुके आनेपर लोगोंको धानन्द देनेवाले समयमें परिजनों से युक्त हनुमान दिव्य विमान में समारूढ़ हो चैत्यगृहोंके दर्शनके लिए मेरु पर्वतकी ओर चला। (३-४) मन और पवनके समान अत्यन्त तीव्र गतिवाला वह आकाशमें उड़कर
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१. हाहाकारपलावो, पयः - प्रत्य० । २. अप्पा जेहि णेव संजमियं । एक्क० – प्रत्य०। ३. कुणइह पुरिसो पेय० - प्रत्य० । ४. दुक्खं लहन्तो - मु० । ५. ० माणेसु आरूढो - मु० ।
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