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हा प्रणिपात करनेवाले पर वात्सल्यभाव रखनेवाले ! तुम उठो और सम्भ्रमयुक्त हमारे साथ हँसकर बातें करो । ( ३१ ) हा दाक्षिण्य गुणाकर! तुम्हारे पास राम खड़े हैं, क्या इन पर भी तुम रुष्ट हुए हो ? जिससे आसन परसे खड़े नहीं होते ? (३२) हे नाथ ! सभामंडपमें आये हुए और तुम्हारे दर्शनके लिए उत्सुक मनवाले दुःखी सुभटोंके साथ चित्तमें शान्ति धारण करके तुम बातचीत करो । ( ३३ ) हा नाथ ! विलाप करते हुए इस अन्तःपुरको क्या तुम नहीं देखते १ शोकातुर और दीन मुखवाले लोगों का तुम दुःख दूर क्यों नहीं करते ? (३४) अत्यन्त शोकातुर और रोती हुई युवतियों से वहाँ किसका हृदय करुणापूर्ण और कण्ठ गद्गद् नहीं हुआ ? (३५) इस प्रकार रोती हुई युवतियों द्वारा फेंके और छोड़े गये हार, कटक आदिसे राजभवनका सारा आँगन और सभा स्थान छा गया । (३६)
५.
पउमचरियं
ना! हा महानस !, उट्टे हि ससंभ्रमाण अम्हाणं । पणिवइयवच्छल ! तुमं, उल्लावं देहि वियसन्तो ॥ ३१ ॥ हा दक्खिण्णगुणायर, तुझ सयासम्मि चिट्ठए पउमो । एयस्स किं व रुट्टो, न य उट्ठसि आसणवराओ ॥ ३२॥ "अत्थाणियागयाणं, सुहडोणं नाह ! दरिसणमणाणं । होऊण सोमचित्तो, आलावं देहि विमणाणं ॥ ३३ ॥ हा नाह! किं न पेच्छसि, एयं अन्तेउरं विलवमाणं ? । सोयाउरं च लोयं, किं न निवारेसि दीणमुहं ! ॥३४॥ सोयाउराहिं अहियं, जुबईहिं तत्थ रोवमाणीहिं । हिययं कस्स न कलुणं, नायं चिय गग्गरं कण्ठं १ ॥ ३५ ॥ एवं रोवन्तीहिं, जुवईहिं हार कडयमाईयं । खित्तुज्झिएहिं छन्ना, सबा रायङ्गणत्थाणी ॥ ३६ ॥ एयन्तरम्मि सोउं कालगयं लक्खणं सुसंविग्गा । लवणं- ऽकुसा विरत्ता, भोगाणं तत्रखणं धीरा ॥ ३७ ॥ चिन्तेन्ति जो सुरेसु वि, संगामे लक्खणो अजियपु बो । बल-विरियसमत्थो वि हु, सो कह कालारिणा निहओ ? ॥ ३८ ॥ किं वा इमेण कीरइ, कयलीथम्भो व साररहिएणं । देहेण दुक्ख - दोग्गइकरेण भोगाहिलासीणं ? ॥ ३९ ॥ गब्भवसहीऍ भोया, पियरं नमिऊण परमं संवेगा । दोणि वि महिन्दउदयं, उज्जाणं पत्थिया धीरा ॥ ४० ॥ अमयरसनामधेयं, साहु पडिवज्जिऊण ते सरणं । पबइया खायनसा, उत्तमगुणधारया जाया एक्कतो सुयविरहो, मरणं च सहोयरस्स अन्नत्तो । घणसोयमहावत्ते, रामो, दुक्खण्णवे पडिओ ॥ रामस्स पिया पुता, पुत्ताण उ वल्लहो य सोमित्ती । विरहे तस्स नराहिव !, रामो अइदुक्खिओ जाओ एवं कम्मनिओगे, संपत्ते सबसंगए बन्धुर्जणे । सोगं वेरग्गसमं, जायन्तिह विमलचेट्टिया सप्पुरिसा ॥ ॥ इइ पउमचरिए लवणं- ऽकुसतवोवणपवेसविहाणं नाम दसुत्तरसयं पव्वं समतं ॥
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४१ ॥
४२ ॥
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४३ ॥
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४४ ॥
उधर लक्ष्मणके मरणको सुनकर अत्यन्त संवेगयुक्त धीर लवण और अंकुश तत्क्षण भोगोंसे विरक्त हुए । ( ३७ ) वे सोचने लगे कि जो लक्ष्मण युद्धमें देवों द्वारा भी अजेय थे वे बल एवं वीर्यसे युक्त होने पर भी कालरूपी शत्रु द्वारा कैसे मारे गये ? (३) अथवा कदलीस्तम्भ के समान सारहीन, दुःख और दुर्गति प्रदान करनेवाले और भोगोंके अभिलाषी इस देहका क्या प्रयोजन है ? (३६) गर्भनिवाससे डरे हुए, परम संवेगयुक्त और धीर वे दोनों पिताको नमस्कार करके महेन्द्रोदय उद्यानकी ओर गये । (४०) अमृतरस नामक साधुकी शरण स्वीकारकर ख्यात यशवाले उन्होंने प्रव्रज्या ली और उत्तम गुणोंके धारक बने । (४१) एक तरफ पुत्रोंका वियोग और दूसरी तरफ भाईका मरण । इस तरह अत्यन्त शोक रूपी बड़े बड़े भँवरवाले दुःखार्णवमें राम गिर पड़े । (४२) रामको पुत्र प्रिय थे और पुत्रों की अपेक्षा लक्ष्मण अधिक प्रिय थे । हे राजन् ! उसके विरह में राम अतिदुःखित हुए । (४३) इस तरह कर्मके नियमवश बन्धुजनकी मृत्यु होनेपर वैराग्यके तुल्य शोक होता है, किन्तु सत्पुरुष तो ऐसें समय विमल आचरणवाले बनते हैं । (४४)
॥ पद्मचरितमें लवण और अंकुशका तपोवनमें प्रवेश -विधान नामक एक सौ दसवाँ पर्व समाप्त हुआ ||
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१.
• मसंविग्गा - प्रत्य• !
अत्थाणआग०- प्रत्य० ।
[११०. ३१
२. ०डाणं णेहदरि० - प्रत्य० ।
३. ० नणुच्छापी -- प्रत्य० । 8.
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०थम्भं व सा० मु० ।
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