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८.३१
पउमचरियं
[ गेण्हन्ता संधेन्ता, परिमुञ्चन्ता य सरवरे बहुसो । न य दीसन्ति कुमारा, दीसन्ति य रिवुभडा भिन्ना ॥ ३१ ॥ निद्दयपहराभिहयं, सयलं लवणसेहि रिउसेन्नं । भग्गं पिहूण समय, नज्जइ सीहेहि मयजूह ॥ ३२ ॥ अणुमग्गेण रहवरा, दाउं ते जंपिऊण आढत्ता । अमुणियकुलाण संपद, मा भज्जह अहिमुहा होह ॥ ३३ ॥ हयविहयविप्परद्ध, निययबलं पेच्छिउँ पलायन्तं । राया पिहू. नियत्तो, पडइ कुमाराण चलणेसु ॥ ३४ ॥ अह भणइ पिहुनरिन्दो, दुच्चरिय जं कयं पमाएणं । तं खमह मज्झ सबं, सोमसहावं मणं काउं ॥ ३५ ॥ पुहइपुरसामियं ते, संभासेऊण महुरवयणेहिं । जाया पसन्नहियया, समयं चिय वजजङ्घणं ।। ३६ ।। लवणङ्कसेहि समय, पिहुस्स पीई निरन्तरा जाया । आणामिया य बहवे, तेहि महन्ता पुहइपाला ॥ ३७ ॥ आवासिएहि एवं. भडेहि तो वजननरवइणा । भणिओ य नारयमुणी, कहेहि लवण-ऽङकुसुप्पत्ती ॥ ३८ ॥ तो भणइ नारयमुणी, अस्थि इहं कोसलाएँ नरवसभो । इक्खागवंसतिलओ, विक्खाओ दसरहो नामं ॥ ३९ ।। चत्तारि सायरा इव, तस्स सुया सत्ति-कन्ति-बलजुत्ता । विन्नाणनाणकुसला, ईसत्थकयस्समा वीरो ॥ ४० ॥ जेट्टो य हवइ पउमो, अणुओ पुण लक्खणो तहा भरहो। सत्तुग्यो य कणिट्ठो, जो सत्तु जिणइ संगामे ॥ ४१ ॥ पालेन्तो पिउवयणं, लक्खणसहिओ समं च घरिणीए । मोत्तण य साएयं, डण्डारण्णं गओ पउमो ॥ ४२ ॥ लच्छीहरेण वहिओ, चन्दणहानन्दणो य सम्बुक्को । सुयवेरिएण समय, करेइ खरदूसणो जुझं ॥ ४३ ।। संगामम्मि सहाओ, जाव गओ लक्खणस्स पउमाभो । ताव य छलेण हरिया, नणयसुया रक्खसिन्देणं ॥ ४४ ॥ सुग्गीव-हणुव-जम्बव-विराहियाई बहू गयणगामी । रामस्स गुणासत्ता, मिलिया पुर्व व सुकएणं ॥ ४५ ॥
सरोवर में इच्छानुसार लीला करने लगे। (३०) बाणों को लिए हुए , निशान देखते हुए और छोड़ते हुए कुमार दिखाई नहीं पड़ते थे, शत्रुओंके बिनष्ट सुभट ही दिखाई पड़ते थे। (३१) लवण और अंकुश द्वारा निर्दय प्रहारोंसे पीटी गई सारी शत्रसेना भागकर पृथुके पास आई। वह सिंहों द्वारा भगाये जाते मृगयूथकी भाँति मालूम होती थी। (३२) पीछे पीछे रथ लगाकर वे कुमार उन्हें कहने लगे कि अज्ञातकुलवालोंसे अब मत भागो। सामने आओ । (३३)
क्षत-विक्षत और विनष्ट हो भागती हुई अपनी सेनाको देखकर पृथराजा लौटा और कुमारोंके चरणोंमें जा गिरा । (३४) फिर पृथुराजाने कहा कि प्रमादवश मैंने जो दुश्चरित किया है वह सब तुम मनको सौम्य स्वभाववाला बनाकर क्षमा करो। (३५) पृथ्वीपुरके स्वामी तथा वनजंघके साथ मधुर वचनोंमें सम्भाषण करके वे मनमें प्रसन्न हुए। (३६) लवण और अंकुशके साथ पृथुकी अत्यन्त प्रीति हुई। उन्होंने बड़े बड़े राजाओंको अधीन किया । (३७) साथमें ठहरे हुए सुभटोंसे युक्त वनजंघ राजाने नारद मुनिसे कहा कि लवण और अंकुशकी उत्पत्तिके बारेमें कहें । (३८) तब नारद मुनिने कहा कि
यहाँ साकेतनगरीमें इक्ष्वाकुवंशमें तिलकभूत दशरथ नामका एक विख्यात राजा था। (३६) उसके चार सागर जैसे शान्ति, कान्ति एवं बलसे युक्त, विज्ञान और ज्ञानमें कुशल तथा धनुर्विद्या तथा अस्त्रविद्यामें अभ्यस्त चार वीर पुत्र थे। (४) ज्येष्ठ राम थे। उनसे छोटे लक्ष्मण और भरत थे और शत्रुघ्न सबसे छोटा था। वह युद्धमें सबको जीत सकता था। (४१) पिताके वचनका पालन करने के लिए लक्ष्मग और अपनी पत्नीके साथ साकेतका त्याग करके राम दण्डकारण्यमें गये। (४२) वहाँ चन्द्रनखाके पुत्र शम्बूकका लक्ष्मण ने वध किया। पुत्रके वैरीके साथ खरदूषणने युद्ध किया। (३) जब राम युद्ध में लक्ष्मगको सहायता देनेके लिए गये तब राक्षसेन्द्र रावणने सीताका छलसे अपहरण किया। (४४) पूर्वकृत पुण्यके कारण रामके गुणोंमें आसक्त सुग्रीव, हनुमान, जाम्बवंत विराधित आदि बहुतसे गगनगामी विद्याधर आ जुटे । (४५) राक्षसपतिको जीतकर राम सीताको वापस लाये। उन्होंने साकेत नगरीको भी स्वर्गसदृश बना
१. कन्तिसंजुत्ता-प्रत्य० । २. धीरा-प्रत्य० । ३. चंदपहा.मु. ।
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