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पउमचरियं
[१०२.१६६एयाई सागराई, कप्पाईणं सुराण परमाउं । अहमिन्दाणं निययं, हवइ इमं मोहरहियाणं ॥ १६६ ॥ एयन्तरम्मि रामो. परिपुच्छह सावं कयपणामो। कम्मरहियाणं भयवं 1. सिद्धाणं केरिसं सोखं ॥ १६७॥ तो भणइ मुणिवरिन्दो, सुणेहि को ताण वण्णिउं सोक्खं । तीरइ नरो नराहिब, तह वि य संखेवओ सुणसु ॥१६८॥ मणुयाण जंतु सोक्खं, तं अहियं हवइ नरवरिन्दाणं । चक्कीण वि अहिययर, नराण तह भोगभूमाणं ॥ १६९॥ वन्तरदेवाण तओ, अहियं तं जोइसाण देवाणं । तह भवणवासियाणं, गुणन्तरं कप्पवासीणं ॥ १७० ॥ गेवेजगाण तत्तो, अहियं तु अणुत्तराण देवाणं । सोक्खं अणन्तयं पुण, सिद्धाण सिवालयत्थाणं ॥ १७१ ॥ जं तिहुयणे समत्थे, सोक्खं सबाण सुरवरिन्दाणं । तं सिद्धाण न अग्घइ, कोडिसयसहस्सभागम्मि ॥ १७२ ॥ ते तत्थ अणन्तबला, अणन्तनाणी अणन्तदरिसी य । सिद्धा अणन्तसोक्खं, अणन्तकालं समणुहोन्ति ॥१७३॥ संसारिणस्स नं पुण, जीवस्स सुहं तु फरिसमादीणं । तं मोहहेउगं निययमेव दुक्खस्स आमूलं ॥ १७४ ॥ जीवा अभधरासी, कुधम्मधम्मेसु जइ वि तवचरणं । घोरं कुणन्ति मूढा, तह वि य सिद्धिं न पावेन्ति ॥१७५॥ . जिणसासणं पमोत्त, राहव ! इह अन्नसासणरयाणं । कम्मक्खओ न विज्जइ, धणियं पि समुज्जमम्ताणं ॥१७६।। जं अन्नाणतवस्सी, खवेइ भवसयसहस्सकोडीहिं । कम्मं तं तिहि गुत्तो, खवेइ नाणी मुहुत्तेणं ॥ १७७ ।। भविया निणवयणरया, जे नाण-चरित्त-दसणसमम्गा । सुक्कज्झाणरईया, ते सिद्धि जन्ति धुयकम्मा ॥ १७८ ॥ एवं सुणिऊण तओ, रहुत्तमो साहवं भणइ भयवं ! । साहेहि जेण सत्ता, संसाराओ पमुच्चन्ति ॥ १७९ ॥ एयन्तरे पवुत्तो, जिणधम्म सयलभूसणो साहू। सम्मईसणमूलं, अणेयतवनियमसंजुत्तं ॥ १८० ॥
उसमें । उत्कर्ष-अपकर्ष नहीं होता। (१६५-१६६) तब रामने हाथ जोड़कर साधुसे पूछा कि, हे भगवन् ! कर्मसे रहित सिद्धोंका सुख कैसा होता है ? (१६७) इस पर मुनिवरने कहा कि, हे राजन् ! उनके सुखका वर्णन कौन कर सकता है ? तथापि संक्षेपमें मैं कहता हूँ। (१६८) मनुष्योंको जो सुख होता है उससे अधिक राजाओंको होता है। उससे अधिक चक्रवर्तियों और भोगभूमिके मनुष्योंको होता है। (१६६) उससे अधिक व्यन्तर देवोंको, उससे अधिक ज्योतिष्क देवोंको, उससे अधिक भवनवासी देवोंको, उससे कई गुना अधिक कल्पवासियोंको सुख होता है। (१७०) उससे अधिक प्रैवेयकोंको, उससे अधिक अनुत्तर विमानवासी देवोंको सुख होता है। शिवधाममें रहे हुए सिद्धोंका सुख उससे अनन्तगुना अधिक होता है। (१७१) समस्त त्रिभुवनमें सब देव एवं इन्द्रोंका मिलाकर जो सुख होता है वह सिद्धोंके हज़ार-करोड़वें भागके भी योग्य नहीं होता। (१७२) वहाँ जो अनन्त बलवाले, अनन्तज्ञानी और अनन्तदर्शी सिद्ध होते हैं वे अनन्त काल तक अनन्त सुखका अनुभव करते हैं। (१७३) संसारी जीवको जो स्पर्श आदिका सुख होता है वह मोहजन्य होता है, अतः अवश्य ही वह दुःखका मूल है। (१७४) अभव्यराशिके मूढ जीव कुधर्मको पैदा करनेवाले धर्मोका पालन कर यदि घोर तपश्चरण करें तो भी सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते । (१७५)
हे राघव! जिनशासनको छोड़कर अन्य शासनमें रत मनुष्य बहुत उद्यम करे तो भी उनके कोका क्षय नहीं होता। (१७६) अज्ञानी तपस्वी जिस कर्मको लाख करोड़ भवोंमें खपाता है उस कर्मको मन-वचन-काय इन तीनोंका संयमन करनेवाला ज्ञानी मुहूर्तमें खपाता है। (१७७) जो भव्य जीव जिनोपदेशमें रत, ज्ञान, चारित्र और दर्शनसे युक्त तथा शुक्लध्यानमें लीन होते हैं वे कर्मोंका नाश करके मोक्षमें जाते हैं। (१७८)
ऐसा सुनकर रामने उन साधुसे कहा कि, भगवन् ! जिससे जीव संसारसे मुक्त होते हैं उसके बारे में आप कहें । (१७९) तब सकलभूषण मुनि मूलमें सम्यग्दर्शनवाले तथा अनेक प्रकारके तप एवं नियमसे युक्त जिनधर्मके बारे में कहने लगे। (१८०) जो जीवादि नौ पदार्थों के ऊपर श्रद्धा रखता है और लौकिक देवोंसे रहित है वह सम्यग्दृष्टि कहा
१.
मादीयं । तं-प्रत्यः ।
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