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१०५. महु-केढववक्खाणपव्र्व
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राया जायइ भिचो, भिच्चो रायत्तणं पुण उवेइ । माया वि हवइ धूया, पिया वि पुत्तो समुब्भवइ ॥ एवं अरहट्टघडीजन्तसमे इह समत्थसंसारे । हिण्डन्ति सबजीवा, सकम्मविप्फंदिया सुइरं ॥ एवं संसारठिहं, वच्छ! तुमं जाणिऊण मूगत्तं । मुञ्चसु फुडक्खरवयं, जंपसु इह लोयमज्झम्मि ॥ सो एव भणियमेतो, परितुट्ठो पणमिऊण मुणिवसहं । सबं जणस्स साहइ, वित्तन्तं कोल्हुयाईयं ॥ संवेयनणियभावो, पामरओ दिक्खिओ मुणिसयासे । सुणिऊण तं अणेगा, जाया समणा य समणी य ॥ ते जणवरण विप्पा, उवहसिया कलयलं करेन्तेणं । एए ते मंसासी उ कोल्हुया बम्भणा जाया ॥ वय - सीलवज्जिएहिं इमेहिं पसुएहिं पावबुद्धीहिं । मुसिया सबेह पया, धम्मत्थी भोगतिसिएहिं ॥ सबारम्भपवित्ता, अबम्भयारी य इन्दियपसत्ता । भण्णन्ति चरणहीणा, अबम्भणा बम्भणा लोए ॥ एए तव चरणठिया, सुद्धा समणा यर बम्भणा लोए । वयबन्धसिहाडोवा, खन्तिखमाबम्भसुत्ता य ॥ झाणग्निहोत्तनिरया, डहन्ति निययं कसायसमिहाओ । साहन्ति मुत्तिमग्गं, समणा इह बम्भणा धीरा ॥ a as नरा लोए, हवन्ति खन्दिन्द - रुहनामा उ । तह एए वयरहिया, अबम्भणा बम्भणा भणिया एवं साहूण थुई, जंपन्तं जणवयं निसुणिऊणं । मरुभूइ-अग्गिभूई, लज्जियविलिया गया सगिहं ॥ ५० ॥ नाऊण य उवसग्गं, एज्जन्तं अत्तणो मुणिवरिन्दो । पडिमाइ पेयभवणे, ठाइ तओ धीरगम्भीरो ॥ ५१ ॥ रोसाणलपज्जलिया, निसासु ते बम्भणा मुणिवहत्थे । पविसन्ति पिउवणं ते, असिवरहत्था महाघोरा ॥ ५२ ॥ बहुविहचिया पलीविय, जलन्तडज्झन्तमडयसंघार्यं । गह भूय-बम्भरक्खस- डाइणि वेयालभीसणयं ॥ ५३ ॥ किलिकिलिकिलन्तरक्खस-सिवामुहुज्ज लियपेयसंघार्यं । कबाय सत्थपउरं, मडयसमोत्थइयमहिवीढं ॥ ५४ ॥
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माता पुत्री होती है और पिता भी पुत्र रूपसे पैदा होता है । (३९) इस तरह रहँटके समान इस समस्त संसार में सब जीव अपने कर्म से परिभ्रान्त होकर भटकते हैं । (४०) हे वत्स ! ऐसी संसारस्थिति जानकर तू मौनका त्याग कर और यहाँ लोगोंके बीच स्फुट अक्षरोंवाली वाणीका उच्चारण कर । (१)
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इस प्रकार कहे गये उसने आनन्दित होकर मुनिको प्रणाम किया और लोगोंसे सियार आदिका सारा वृत्तान्त कह सुनाया । (४२) वैराग्यजन्य भावसे युक्त प्रामरकने मुनिके पास दीक्षा ली। उसे सुनकर अनेक लोग श्रमण और श्रमणी हुए। (४३) कोलाहल करते हुए लोग उन ब्राह्मणों का उपहास करने लगे कि वे मांसभक्षक सियार ये ब्राह्मण हुए हैं। (४४) व्रत एवं शीलसे रहित, पापबुद्धि और भोगोंके प्यासे इन पशुओंने सारी धर्मार्थी प्रजाको ठगा है। (४५) सभी हिंसक कार्यों में प्रवृत्ति करनेवाले, अब्रह्मचारी, इन्द्रियोंमें आसक्त, चारित्रहीन ये अब्राह्मण लोकमें ब्राह्मण कहे जाते हैं । (४६) तपश्चर्या में स्थित, शुद्ध, व्रतरूपी शिखाबन्धके आटोपवाले तथा क्षान्ति-क्षमारूपी यज्ञोपवीतसे सम्पन्न ये श्रमण ही लोकमें ब्राह्मण हैं । (४७) ध्यानरूपी अग्निहोत्र में निरत ये कषायरूपी समिधाओंको जलाते हैं। श्रमणरूपी ये धीर ब्राह्मण यहाँ मुक्तिमार्ग साधते हैं । (४८) जैसे इस लोकमें कई मनुष्य स्कन्द, इन्द्र, रुद्र के नामधारी होते हैं वैसे ही व्रतरहित ये अब्राह्मण ब्राह्मण कहे गये हैं । (४६)
इस तरह लोकों को साधुकी स्तुति करते सुन मरुभूति और अग्निभूति लज्जित होकर अपने घर पर गये । (५०) अपने पर आनेवाले उपसर्गको जानकर धीर-गम्भीर वह मुनिवर श्मशान में ध्यान लगाकर स्थित हुए । (५१) रोषाग्निसे प्रज्वलित वे अतिभयंकर ब्राह्मण मुनिके वध के लिए हाथमें तलवार लेकर श्मशानमें प्रविष्ट हुए । (५२) वहाँ अनेक चिताएँ जली हुई थीं; जले और दग्ध मुरदोंका ढेर लगा था, ग्रह, भूत, ब्रह्मराक्षस, डाकिनी और वैतालोंसे वह भयंकर था; किलकिल आवाज करते हुए राक्षसों और गीदड़के जैसे मुखवालोंसे तथा ऊँची ज्वालाओंसे युक्त वह प्रेतोंके समूहसे व्याप्त था; राक्षसोंके शस्त्रोंसे वह प्रचुर था; उसकी जमीन मुरदोंसे छाई हुई थी; पकाये जाते मुरदोंके फेफड़ोंमेंसे १. ० प्फंडियं सु० मु० । २. उ-प्रत्य० । ३. ० माउ पिउवणे सो, ठाइ – मु० ।
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