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१०५. महु-केढव उवक्खाणपव्वं
तं चैव उ वबहारं, राया मोत्तूण पत्थिओ सगिहं । भणिओ चन्दाभाए, किं अज्ज चिरावियं सामि ? ॥ १०१ ॥ तेण वि सा पडिभणिया, ववहारो पारदारियस्स पिए । । आसि न तीरइ छेत्तु, चिरावियं तेण अज्ज मए ॥ १०२ ॥ तो भइ विहसिऊ, चन्दाभा पारदारियं सामि ! । पूएहि पयत्तेणं, न तस्स दोसो हवइ लोए ॥ १०३ ॥ सुणिऊण तीऍ वयणं, रुट्ठो महुपत्थिवो भणइ एवं । जो निग्गहस्स भागी, सो कह पूइज्जए दुट्ठो ? ॥ १०४ ॥ नइ निहं नराहिव !, कुणसि तुमं पारदारियनरस्स । घोरं तु महादण्डं, किं न हु तं अत्तणो कुणसि ? ॥१०५॥ पढमपरदारसेवी, सामि ! तुमं सयलवसुमईनाहो । पच्छा हवइ य लोओ, नह राया तह पया सबा ॥ १०६॥ सयमेव नरवरिन्दो, जत्थ उ परदारिओ हवइ दुट्ठो । तत्थ उ किं ववहारो, कीरइ लोगस्स मज्झम्मि ? ॥ १०७॥ सुणिऊण वयणमेयं, पडिबुद्धी तक्खणं महू राया । निन्दइ पुणो पुणो च्चिय, अप्पार्ण जायसंवेगो ॥ १०८॥ कुलवद्धणस्स रज्जं, दाउँ सह केढवेण महुराया । निक्खमइ दढधिईओ, पासे मुणिसीहसेणस्स ॥ १०९ ॥ चन्दाभावि महाकुलसंभूया उज्झिऊण रायसिरिं । तस्सेव पायमूले, मुणिस्स दिक्खं चिय पवन्ना ॥ घोरं काऊण तवं कालगया आरणच्चुए कप्पे । महु-केढवाऽणुनाया, दोण्णि वि ते इन्दपडिइन्दा ॥ समणी विय चन्दाभा, संजम-तव-नियम- जोगजुत्तमणा । कालंगया उववन्ना, देवी दिवेण रूवेणं ॥ बावीससागराईं, नह तेहि सुहं मगोहरं भुत्तं । सेणिय ! अच्चुयकप्पे, सीया इन्दो विय तहेव ॥ इमं महू-केढवरायचेट्टियं, समासओ तुज्झ मए निवेइयं । नरिन्द ! धीरकुमारसंगयं, सुणेहि एत्तो विमलाणुकित्तणं ॥ ११४ ॥ ॥ इइ पउमचरिए महु-केढव उवक्खाणं नाम पञ्चुत्तरसयं पव्वं समत्तं ॥
११० ॥
१०५. ११४ ]
क्यों हुआ ? (१०१) उसने भी उसे उत्तरमें कहा कि, हे प्रिये ! परस्त्री में लम्पटका एक मुक़द्दमा था । उसके निर्णयका पता नहीं चलता था । इससे आज मुझे विलम्ब हुआ । ( २०२ ) तब चन्द्राभाने हँसकर कहा कि, हे स्वामी ! तुम उसकी प्रयत्नसे पूजा करो परस्त्रीसेवन करनेवाले का लोकमें दोष नहीं होता । (१०३) उसका कथन सुनकर रुष्ट मधु राजाने ऐसा कहा कि जो दण्डका भागी है वह दुष्ट कैसे पूजा जायगा ? (१०४) हे राजन् ! परस्त्रीलम्पट मनुष्यको तुम घोर दण्ड देते हो, तो अपने आपको दण्ड क्यों नहीं देते ? (१०५) हे स्वामी ! सारी पृथ्वीके मालिक तुम प्रथम परदारसेवी हो । बादमें लोग हैं। जैसा राजा वैसी सारी प्रजा होती है । (१०६) जहाँ स्वयं राजा ही दुष्ट व परस्त्रीलम्पट होता है वहाँ लोगोंके बीच क्या फैसला किया जाता होगा ? (१०७)
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१११ ॥
११२ ॥ ११३ ॥
यह कथन सुनकर मधु राजा तत्काल प्रतिबुद्ध हुआ । विरक्त वह अपने आपको पुनः पुनः निन्दा करने लगा । (१०८) -कुलवर्धनको राज्य देकर दृढ़ बुद्धिवाले मधु राजाने कैटभके साथ सिंहसेन मुनिके पास दीक्षा ली । (१०६) बड़े कुलमें उत्पन्न चन्द्राभाने भी राज्य की लक्ष्मीका परित्याग कर उसी मुनिके चरणों में दीक्षा अंगीकार की । (११०) घोर तप करके मरने पर वे दोनों मधु और कैटभ आरण और अच्युत कल्पमें इन्द्र और प्रति इन्द्रके रूपमें पैदा हुए। (१११) संयम, तप, नियम और योगमें युक्त मनवाली श्रमणी चन्द्राभा भी मरने पर दिव्य रूपसे सम्पन्न देवीके रूपमें उत्पन्न हुई । (११२) हे श्रेणिक ! जिस तरह उन्होंने बाईस सागरोपम तक अच्युत देवलोक में मनोहर सुख भोगा उसी तरह इन्द्र रूपसे सीताने भी भोगा । (११३) हे राजन् ! मधु एवं कैटभ राजाओंका चरित मैंने तुमसे संक्षेपमें कहा। अब आठ धीर कुमारोंका विमल एवं श्लाघनीय चरित सुनो । (११४)
॥ पद्मचरित में मधु-कैटभका उपाख्यान नामक एक सौ पाँचवाँ पर्व समाप्त हुआ ।
१. ०ण्डं तो किंण हु अ० - प्रत्य । २. अत्ताणं - प्रत्य० । ३. ०न्दो च्चिय - प्रत्य० ।
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