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१०५. महु-केढवउवक्खाणपत्र
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एयाएँ अवत्थाए, नइ अम्हे कह वि निष्फिडीहामो । तो मुणिवरस्स वयणं, निस्सन्देह करीहामो ॥ ७० ॥ एयन्तरम्मि पत्तो, समयं चिय अग्गिलागू तुरन्तो । विप्पो उ सोमदेवो. पणमइ साह पसाएन्तो ॥ ७१ ॥ पणओ पुणो पुणो चिय, 'समणं तो बम्भणो भणइ एवं । जीवन्तु देव एए, दुप्पुत्ता तुज्झ वयणेणं ॥७२॥ समसत्त-मित्तभावा, समसुह-दुक्खा पसंस-निन्दसमा । समणा पसत्थचित्ता. हवन्ति पावाण वि अपावा ॥ ७३ ॥ ताव च्चिय संपत्तो, जक्खो तं बम्भणं भणइ रुट्ठो । मा देसि संपइ तुम, अब्भक्खाणं मुणिवरस्स ।। ७४ ॥ पावा य कलुसचित्ता, मिच्छादिट्ठी मुणी दुगुंछन्ता । रे विप्प ! तुज्झ पुत्ता, इमे मए थम्भिया दुट्ठा ।। ७५ ॥ मारेन्तो लहइ वह, सम्माणेन्तो य लहइ सम्माणं । जो जं करेइ कम्म, सो तस्स फलं तु अणुहवइ ॥७६॥ तं एव जपमाणं, अइचण्डं दारुणं महादुक्खं । विन्नवइ पायवडिओ, साहुं च पुणो पुणो विप्पो ॥ ७७ ॥ तो भणइ मुणी जक्खं, मरिससु दोसं इमाण विप्पाणं । मा कुणसु जीवघार्य, मज्झ कए भद्द ! दीणाणं ॥७८॥ जं आणवेसि मुणिवर!, एवं भणिऊण तत्थ नक्खेणं । ते बम्भणा विमुक्का, आसस्था साहवं पणया ॥ ७९ ॥ ते अग्गि-वाउभूई, वेयसुई उज्झिऊण उवसन्ता । साहुस्स सन्नियासे, दो वि जणा सावया जाया ।। ८० ॥ निणसासणाणुरत्ता, 'गिहिधम्म पालिऊण कालगया। सोहम्मकप्पवासी, दोण्णि य" देवा समुप्पन्ना ॥ ८१ ॥ तत्तो चुया समाणा. साएयाए समुद्ददत्तस्स । सेट्ठिस्स धारिणीए, पियाएँ पुना समुप्पन्ना ॥ ८२ ॥ नन्दण-नयणाणन्दा, पुणरवि सायारधम्मनोएणं । मरिऊण तओ जाया, देवा सोहम्मकप्पम्मि ॥ ८३ ॥ ते तत्थ वरविमाणे, तुडिय-ऽङ्गय-कडय-कुण्डलाहरणा । भञ्जन्ति विसयसोक्खं, सुरवहुपरिवारिया सुइरं ॥ ८४॥
समर्थ होने पर भी हम यहाँ पर स्तम्भित किये गये हैं। (६९) इस अवस्थामेंसे यदि हमें किसी तरहसे छुटकारा मिलेगा तो हम निस्सन्देह रूपसे मुनिवरके वचनका पालन करेंगे। (७०)
उस समय अग्निलाके साथ सोमदेव ब्राह्मण जल्दी जल्दी आया और प्रशंसा करके साधुको प्रणाम किया। (७१) बारंबार श्रमणको प्रणाम करके ब्राह्मणने ऐसा कहा कि, हे देव ! आपके वचनसे ये दुष्ट पुत्र जीवित रहे । (७२) शत्रु और मित्रमें समभाव रखनेवाले, सुख और दुःखमें सम तथा निन्दा एवं प्रशंसामें भी समवृत्ति और प्रसन्न चित्तवाले श्रमण पापियोंके ऊपर भी निष्पाप होते हैं। (७३) उसी समय रुष्ट यक्ष उपस्थित हुआ और उस ब्राह्मणसे कहने लगा कि अब तुम मुनिवर पर मिथ्या दोषारोप मत लगाओ। (७४) रे विप्र ! पापी, मलिन चित्तवाले, मुनिके निन्दक तुम्हारे इन दुष्ट पुत्रोंको मैंने स्तम्भित कर दिया है। (७५) मारने पर वध मिलता है और सम्मान करने पर सम्मान मिलता है। जो जैसा कार्य करता है वह उसका फल चखता है। (७६) इस तरह कहते हुए अतिप्रचण्ड, भयंकर और महादुःखदायी उस यक्षके एवं साधुके पैरोंमें पड़कर ब्राह्मण पुनः पुनः बिनती करने लगा। (७७) तब मुनिने यक्षसे कहा कि इन ब्राह्मणोंका दोष क्षमा करो। हे भद्र ! मेरे लिए दीनजनोंका जीवघात मत करो। (७८) हे मुनिवर ! जैसी आज्ञा'-ऐसा कहकर यक्षने उन ब्राह्मणोंको छोड़ दिया। अश्वस्त उन्होंने साधुको प्रणाम किया। (७९) क्रोध आदि विकाररहित उन अग्निभूति और वायुभूतिने वेदश्रुतिका परित्याग किया। दोनों जन साधुके पास श्रावक हुए। (८०)
जिनशासनमें अनुरक्त वे दोनों गृहस्थ-धर्मका पालन करके मरने पर सौधर्म देवलोकवासी देवके रूपमें उत्पन्न हुए। (८१) वहाँ से च्युत होने पर साकेतनगरीमें समुद्रदत्त सेठकी धारिणी नामकी प्रियासे पुत्रके रूपमें उत्पन्न हुए। (८२) नन्दन और नयनानन्द वे पुनः गृहस्थधर्मके प्रभावसे मरकर सौधर्मकल्पमें देव हुए। (८३) उस उत्तम विमानमें तोड़े, बाजूबन्द, कड़े, एवं कुण्डलोंसे विभूषित और देवकन्याओंसे घिरे हुए उन्होंने चिरकाल तक विषयसुखका
१. समणं तं ब०-प्रत्य। २. एए पुत्ता मे तुज्झ-प्रत्य। ३. फलं समणुहोइ-मु.। ४. गिह धर्म-प्रत्यः । ५. वि-प्रत्य० ।
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