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पउमचरियं
पच्चन्तमडयं पुप्फससिमिसिमियगलन्तरुहिरविच्छड्ड । डाइणिकबन्धकडियभीमं रुण्टन्तभूयगणं ॥ ५५ ॥ कडपूयणगहियरडन्तडिम्भयं कयतिगिच्छमन्तरवं । मण्डलरयपवणुद्धयइन्दा उहनणियनहमगं ॥ ५६ ॥ विज्जासाहणसुट्टिय जंगूलियतार नणियमन्तरखं 1 वायसअवहियमंं, उद्धमुहुन्नइयनम्बुगणं ॥ ५७ ॥ कत्थइ पेयायडियमडयविकीरन्तं कलहसद्दालं । कत्थइ वेलायतरुणियरभमन्तभूयगणं ॥ ५८ ॥ कत्थइ रडन्तरिट्टं, अन्नत्तो भुगुभुगेन्तजम्बुगणं । घुघुघुघुघुएन्तघूयं, कत्थइ कयपिङ्गलाबोलं ॥ ५९ ॥ कत्थइ कढोरहुयवहतड तडफुट्टन्त असिद्दालं । कत्थइ साणायड्डिय-मडयामिसँ लग्गजुद्धधणि ॥ ६० ॥ कत्थइ कवालधवलं, कत्थइ मसिधूमधूलिधूसरियं । किंसुयवणं व कत्थइ, नालामाला उलं दित्तं ॥ ६१ ॥ एयारिसे मसाणे, झाणत्थं मुणिवरं पलोएडं । विप्पा बहुज्जयमई, सविऊण मुणि समाढत्ता ॥ रे समण ! इह मसाणे, मारिज्जन्तं तुमं धरउ लोओ । पच्चक्खदेवए वि हु, नं निन्दसि बम्भणे अम्हे ॥ ६३ ॥ अम्हेहिं भाससि तुमं, जह एए नम्बुगा परभवम्मि । आसि किर दोण्णि वि जणा, एए विप्पा समुत्पन्ना ॥ ६४॥ ते एव भाणिऊणं, दट्ठोट्टा असिवराई कड्डेउं । पहणन्ता मुणिवसहं तु थम्भिया ताव नक्खेणं ॥ ६५ ॥ एवं कमेण रयणी, विप्पाणं थम्भियाण वोलीणा । उइओ य दियसणाहो, साहूण समाणिओ नोगो ॥ ६६ ॥ तावागओ समत्थो, सङ्घो सह जणवएण मुणिवसभं । वन्दइ विहियहियओ, पेच्छन्तो थम्भिए विप्पे ॥ ६७॥ भणिया य नणवणं, एए विप्पा पराइया वाए । समणेण गुणवरेणं, जाया वि हु तेण पडिकुट्टा ॥ ६८ ॥ चिन्तेन्ति तओ विप्पा, एस पहावो मुणिस्स निक्खुत्तं । बलविरियसमत्था वि य, तेणऽम्हे थम्भिया इहईं ॥६९॥
६२ ॥
सिम-सिम करके भरते हुए रुधिरसे वह आच्छन्न था; डाकिनियोंके धड़ों में से बाहर निकले हुए और भयंकर आवाज करनेवाले भूतगण उसमें थे; उसमें कटपूतन ( व्यन्तरदेव ) देव रोते हुए बच्चे ले रखे थे; चिकित्साके लिए मंत्रध्वनि वहाँ की जा रही थी, पवनके द्वारा उठी हुई मंडलाकार धूल से आकाशमार्ग में इन्द्रधनुष उत्पन्न हुआ था, विद्यासाधनके लिए अच्छी तरहसे स्थित जांगुलिकों (वित्रमंत्र का जाप करनेवालों) द्वारा ऊँचे स्वरसे की जानेवाले मंत्रध्वनिसे वह व्याप्त था, उसमें कौवे मांस छीन रहे थे और गीदड़ ऊँचा करके चिल्ला रहे थे । ( ५३-५७) कहीं प्रेतों द्वारा आकर्षित मुरदोंके विखर जानेके कारण कलह ध्वनिसे वह शब्दित था, कहीं वैताल द्वारा आहत वृक्षोंमें क्रन्दन करनेवाले भूतगण घूम रहे थे, कहीं कौए चिल्ला रहे थे, सियार भुग्-भुग् आवाज कर रहे थे, कहीं उल्लू धू-धू आवाज कर रहा था तो कहीं कपिंजल पक्षी बोल रहा था, कहीं भयंकर आग से तड़-तड् फूटती हुई हड्डियों से वह शब्दित था, तो कहीं कुत्तों द्वारा खींचे जाते मुरदोंके मांसको लेकर युद्धकी ललकारें हो रही थीं, कहीं वह खोपड़ियोंसे सफेद और कहीं काले धूएँ और धूलसे धूसरित था, कहीं टेसूका जंगल था, तो कहीं जलती हुई ज्वालाओंके समूहसे वह युक्त था । (५८-६१ )
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ऐसे श्मशान में ध्यानस्थ मुनिवरको देखकर वधके लिए उद्यत बुद्धिवाले वे ब्राह्मण मुनिको सुनाने लगे कि, अरे श्रमग! इस श्मशान में हमारे द्वारा मारे जाते तुम्हारी लोग रक्षा करे, क्योंकि साक्षात् देवतारूप हम ब्राह्मणों की तुमने निन्दा की है । (६२-६३) हमारे लिए तुमने कहा था कि ये दोनों व्यक्ति परभवमें गीदड़ थे । वे ब्राह्मण रूपसे पैदा हुए हैं। (६४) ऐसा कहकर होंठ पीसते हुए उन्होंने तलवार खींचकर जैसे ही मुनिवरके ऊपर प्रहार किया वैसे ही एक यक्षने उन्हें थाम लिया । (६५) इस तरह थामे हुए ब्राह्मणोंकी रात क्रमशः व्यतीत हुई। सूर्य उदित हुआ। साधुने योग समाप्त किया । (६६) उस समय लोगों के साथ समस्त संघ मुनिवरको वन्दन करनेके लिए आया । हृदयमें विस्मित उस संघने उन स्तम्भित ब्राह्मणोंको देखा । (६७) लोगोंने कहा कि वाद में ये ब्राह्मण भ्रमण गुरुवरों द्वारा पराजित हुए थे । उसीसे ये कुपित हुए हैं। (६८) तब ब्राह्मण सोचने लगे कि अवश्य ही यह प्रभाव मुनिका है । इसीसे बल एवं वीर्य में २. ० न्तपेयसद्दालं – मु० । ३. यालयं, रुणुरुणिय भम० मु० । ४. ०सळद्धधणिय
१. ०यफुप्फुस मिसिमिसियग० - प्रत्य• । सुहं - प्रत्य० । ५. गुणधरेणं - प्रत्य• ।
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