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१०५. महु-केढवउवक्खाणपव्वं
परिगलियम्स - सोणिय - ण्हारु- छिरा पायडऽट्ठियकवोला । सहवड्डिएण वि तया, नणेण नो लक्खिया सीया ॥ ७ ॥ एवंविहं तवं 'सा वि सद्विवरिसाणि सुमहयं काउं । तेतीसं पुण दियहा, विहिणा संलेहणाउता ॥ ८ ॥ विहिणाऽऽराहियचरणा, कालं काऊण तत्थ वइदेही । बावीससायरठिई, पडिइन्दो अच्चुए नाओ ॥ ९ ॥ मगहाहिब ! माहप्पं, पेच्छसु निणसासणस्स जं जीवो । मोत्तूण जुबइभावं, पुरिसो जाओ सुरवरिन्दो ॥ १०॥ सो तत्थ वरविमाणे, सुमेरुसिहरोवमे रयणचित्तें । सुरजुवईहिं परिवुडो, सीइन्दो रमइ सुहपउरो ॥ ११ ॥ याणि य अन्नाणि य, जीवाणं परभवाणुचरियाई । निसुणिज्जन्ति नराहिव !, मुणिवरकहियाई बहुयाई ॥ १२॥ तो भइ मगहराया, भयवं कह तेहिं अच्चुए कप्पे । बावीससागरठिई, भुत्ता महु-केढवेहिं पि ॥ १३ ॥ भइ त गणनाहो, वरिससहस्साणि चेव चउसट्ठी । काऊण तवं विउलं, जाया ते अच्चुए देवा ॥ काण चुयमाणा, अह ते महु केढवा इहं भरहे । कण्हस्स दो वि पुत्ता, उप्पन्ना सम्ब-पज्जुण्णा ॥ छस्समहिया उ लक्खा, वरिसाणं अन्तरं समक्खायं । तित्थयरेहिं महायस !, भारह - रामायणाणं तु ॥ पुणरवि य भणइ राया, भयवं ! कह तेहिं दुल्लहा बोही । लद्धा तवो य चिण्णो ?, 'एयं साहेहि मे सबं ॥१७॥ तो भइ इन्दभूई, सेणिय ! महु-केढवेहिं अन्नभवे । जह निणमयम्मि बोही, लद्धा तं सुणसु एगमणो ॥ १८ ॥ इह खलु मगहाविसए, सालिग्गामो ति नाम विक्खाओ । सो भुञ्जइ तं कालं, राया निस्सन्दिओ नामं ॥१९॥ विप्पो उ सोमदेवो, तत्थ उ परिवसइ सालिवरगामे । तस्सऽग्गिलाऍ पुत्ता, सिहिभूई वाउभूई य ॥ २० ॥ अह ते पण्डियमाणी, छक्कम्मरया तिभोगसम्मूढा । सम्मद्दंसणरहिया, निणवरधम्मस्स पडणीया ॥ २१ ॥
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रक्त-मांस गल जानेसे तथा अस्थिमय कपोलों पर धमनियों और नसोंके स्पष्ट रूपसे दिखाई देनेसे साथ में पले-पोसे लोगों द्वारा भी सीता पहचानी नहीं जाती थी। (७) ऐसा साठ साल तक बड़ा भारी तप करके उसने तैंतीस दिन तक विधि पूर्वक सलेखना की । (८) विधिपूर्वक चारित्र की आराधना करके मरने पर वैदेही अच्युत देवलोक में बाईस सागरोपमकी स्थितिवाला इन्द्र हुई । (8) हे मगधाधिप ! जिन शासनका माहात्म्य तो देखो कि जीव स्त्रीभावका त्याग करके देवेन्द्रके रूपमें पुरुष होते हैं । (१०) सुमेरुके शिखरके समान उन्नत और रत्नोंसे चित्रित उस उत्तम विमान में सुर-युवतियोंसे घिरा हुआ वह सीतेन्द्र क्रीड़ा करता था । (११) हे राजन् ! मुनिवर के द्वारा कहे गये ये तथा दूसरे बहुत-से परभवके चरित सुने गये । ( १२ )
तब मगधराज श्रेणिकने पूछा कि, हे भगवन् ! उन मधु एवं कैटभने अच्युत कल्पमें बाईस सागरोपमकी स्थिति कैसे भोगी थी ? (१३) इसपर गणनाथ गौतमने कहा कि
चौसठ हजार वर्ष तक बड़ा भारी तप करके वे अत्युत देवलोक में देव हुए थे । (१४) समय आने पर वहाँसे च्युत हो वे मधु और कैटभ इस भरतक्षेत्र में कृष्णके दो पुत्र शाम्ब और प्रद्युम्न रूपसे उत्पन्न हुए । (१५) हे महायश ! तीर्थंकरोंने भारत और रामायणके बीच छलाखसे अधिक वर्षका अन्तर कहा है । (१६)
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पुनः राजाने पूछा कि, भगवन् ! उन्होंने किस तरह दुर्लभ बोधि प्राप्त की थी और तप किया था ? - यह सब आप मुझे कहें। (१७) तब इन्द्रभुतिने कहा कि, हे श्रेणिक ! मधु एवं कैटभने परभवमें जिन धर्ममें जो सम्यग्दृष्टि प्राप्त की थी उसे तुम एका मनसे सुनो । (१८)
इस मगध में शालिग्राम नामका एक विख्यात नगर था। उस समय निःष्यन्दित नामका राजा उसका उपभोग करता था । (१६) उस शालिग्राममें एक सोमदेव नामका ब्राह्मण रहता था । अग्निलासे उसे शिखिभूति तथा वायुभूति नामके | दो पुत्र हुए। (२०) वे पण्डितमानी, षड्विध कमोंमें रत, तीनों प्रकारके भोगोंसे विमूढ़, सम्यग्दर्शनसे रहित और जिनवर के
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१. सा तिसट्ठि ० - प्रत्य० । २. दिवसा वि०- प्रत्य० । ३. ० यचरिया, कालं - मु० । ४. ० वुडा, इन्दो सो रमइ-मु० । ५. चउसठ्ठि सहस्साई, वरिं० मु० । ६. एवं मु० । ७. पडिणीया - प्रत्य० ।
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