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पउमचरियं
[ १०३. ५२
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माहिन्दे सुरवरो जाओ
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चिन कुणइ माया, नेय पिया 'नेव बन्धवा सबे । जं कुणइ सुप्पसन्नो, समाहिमरणस्स दायारो ॥५२॥ अह भइ तं कुमारो, भुञ्जसु रज्जं इमं निरवसेसं । पउमरुइ ! निच्छएणं, मज्झ वि आणं तुमं देन्तो ॥ ५३ ॥ एवं ते दो वि नणा, परमिडिजुया सुसावया जाया । देवगुरुपूयणरया, उत्तमसम्मत्तदढभावा ॥ ५४ ॥ वसहद्धओ कयाई, समाहिबहुलं च पाविउं मरणं । उववन्नो ईसाणे, देवो दिषेण रूवेणं ॥ ५५ ॥ पउमरुई बि समाहीमरणं लद्धण सुचरियगुणेणं । तत्थेव य ईसाणे, महिडिओ सुरवरो जाओ तं अमरपवरसोक्खं, भोत्तूण चिरं तओ चुयसमाणो । मेरुस्स अवरभाए, वेयड्डे पबए रम्मे ॥ नयरे नन्दावत्ते, कणयाभाकुच्छिसंभवो जाओ । नन्दीसरस्स पुत्तो, नयणाणन्दो ति नामेणं ॥ भोत्तूण खेयरिद्धि, पबज्जमुवागओ य निग्गन्थो । चरिय तवं कालगओ, पञ्चिन्दियाभिरामे, तत्थ वि भोगे कमेण भोत्तूर्णं । चइओ खेमपुरीए, सो विउलवाहणसुओ, नाओ पउमावईऍ देवीए । सिरिचन्दो त्ति कुमारो, कन्ताहिं परिमिओ सो, मुञ्जन्तो उत्तमं विसयसोक्खं । न य जाणइ वच्चन्तं कालं दोगुन्दुओ चैव ॥ अह अन्नया मुणिन्दो, समाहिगुतो ससङ्घपरिवारो । पुहईं च विहरमाणो, तं चैव पुरिं समणुपत्तो ॥ सोऊण मुणिवरं तं, उज्जाणे आगयं पुहइवालो । वच्चइ तस्स सयासं, नरवइचक्केण समसहिओ ॥ दण साहवं तं, अवइण्णो गयवराओ सिरिचन्दो । पणमइ पहट्टमणसो, समाहिगुत्तं सपरिवारो ॥ कयसंथवो निविट्टो, दिन्नासीसो समं नरिन्देहिं । राया पुच्छइ धम्मं, कहेइ साहू विसंखेवं ॥ जीवो अणाइकालं, हिण्डन्तो बहुविहासु जोणीसु । दुक्खेहिं माणुसतं पावर कम्माणुभावेणं ॥ अति समृद्ध राज्य मैंने पाया है। (५१) न तो माता, न पिता और न सब बन्धुजन वह कर सकते हैं जो सुप्रसन्न और समाधिमरणका दाता कर सकता है । (५२)
पुबविदेहे सुरम्माए ॥
जोबण - लायण्ण- गुणपुण्णो
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कुमारने उससे कहा कि, हे पद्मरुचि ! मुझे भी आज्ञा देते हुए आप इस समस्त राज्यका उपभोग करो। (५३) इस तरह वे दोनों व्यक्ति देव एवं गुरुके पूजनमें रत, सम्यक्त्वसे युक्त उत्तम दृढ़ भाववाले तथा उत्कुष्ट ऋद्धिवाले सुश्रावक हुए । (५१) कभी समाधि से युक्त मरण पाकर वृषभध्वज ईशान देवलोकमें दिव्य रूपसे सम्पन्न देव हुआ । (५५) पद्मरुचि भी समाधिमरण पाकर सदाचारके प्रभावसे उसी ईशान देवलोकमें बड़ी भारी ऋद्धिवाला देव हुआ । (५६) देवोंके उस उत्तम सुखका चिरकाल तक उपभोग करनेके बाद च्युत होनेपर वह मेरुके पश्चिम भागमें आये हुए सुन्दर वैताढ्य पर्वत के ऊपर नन्द्यावर्त नगर में नन्दीश्वरकी कनकाभाकी कुक्षिसे उत्पन्न नयनानन्द नामका पुत्र हुआ । (५७-५८ ) विद्याधरकी ऋद्धिका उपभोग करके निर्मन्थ उसने प्रव्रज्या ली । तप करके मरने पर वह माहेन्द्र लोकमें उत्तम देव हुआ । (५६) वहाँ पाचों इन्द्रियोंके लिए सुखकर भोगोंका उपभोग करके च्युत होनेपर वह पूर्व विदेहमें आई हुई सुरम्य क्षेमपुरीमें विमल वाहनकी पद्मावती देवी से श्रीचन्द्र कुमार नामके यौवन एवं लावण्य गुणोंसे पूर्ण पुत्रके रूपमें उत्पन्न हुआ । (६०-६१ ) पत्नियों से घिरा हुआ वह दोगुन्दक देवकी भाँति उत्तम विषयसुखवा उपभोग करता हुआ समय कैसे बीतता है यह नहीं जानता था । (६२)
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एक दिन पृथ्वी पर विहार करते हुए समाधिगुप्त नामके मुनिवर संघ और परिवार के साथ उसी पुरीमें पधारे। (६३) उद्यान में आये हुए उन मुनिवरके बारेमें सुनकर राजसमूहके साथ राजा उनके पास गया । (६४) उस साधुको देखकर श्रीचन्द्र हाथी परसे नीचे उतरा और मनमें प्रसन्न हो परिवार के साथ समाधिगुप्त मुनिको प्रणाम किया। (६५) स्तुति करके वह बैठा । नरेन्द्रों के साथ आशीर्वाद दिये गये राजाने धर्मके बारेमें पूछा । साधुने संक्षेपसे कहा कि
अनादि कालसे नानाविध योनियों में परिभ्रमण करता हुआ जीव कर्मके फलस्वरूप मुश्किलसे मनुष्य जन्म प्राप्त करता हैं। (६६-६७) मानव जन्म प्राप्त करके भी विषयसुखकी पीड़ासे लोलुप मूर्ख मनुष्य अपनी स्त्रीके स्नेहसे नाचता हुआ १. नेय व० - प्रत्य० । २. व उई० - मुन ३. ०ण खयरसिद्धि – मु० । ४. ० यक्षपडिपुन्नो – प्रत्य• । ५. पुरं स० - मु० ।
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