Book Title: Paumchariyam Part 2
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

Previous | Next

Page 192
________________ १०३. १४७ ] १०३. रामपुव्वभव-सीयापव्वज्जाविहाणपव्वं १३७ ॥ सबायरेण तइया, उद्धरिओ रावणेण कइलासो । अगुट्टएण सो पुण, नीओ वाली ण संखोहं ॥ झाणाणलेण डहिउँ, निस्सेसं कम्र्मकयवरं बाली । संपत्तो परमपयं, अजरामरनीस्यं ठाणं ॥ एवं अन्नोन्नवहं, कुणमाणा पुब बद्धदढवेरा । संसारे परिभमिया, दोण्णि वि वसुदत्त - सिरिकन्ता ॥ जेणं सा वेगवई, आसि सयंभुस्स वल्लहा तेणं । अणुबन्धेणऽवहरियां, सीया वि हु रक्खसिन्देणं ॥ नो 'बिय सो सिरिभूई, वेगवईए कए सयंमूणा । वहिओ धम्मफलेणं, देवो नाओ विमाणम्मि ॥ चइउं पइट्ठनयरे, पुणवसू खेयराहिवो जाओ । महिलाहेउ सोयं, करिय नियाणं च पब इओ ॥ १३८ ॥ काऊ तवं घोरं, सणकुमारे सुरो समुत्पन्नो । चइओ सोमित्तिसुओ, नाओ वि हु लक्खणो एसो ॥ १३९ ॥ सत्तू जेण सयंभू, सिरिभूइपुरोहियस्स आसि पुरा । तेण इह मारिओ सो, दहवयणो लच्छिनिलएणं ॥ १४० ॥ जो जेण हओ पुवं, सो तेण वहिज्जए न संदेहो । एसा ठिई बिहीसण, संसारत्थाण जीवाणं ॥ १४१ ॥ एवं सोऊण इमं, जीवाणं पुबवेरसंबन्धं । तम्हा परिहरह सया, वेरं सबे वि दूरेणं ॥ वयणेण वि उब्बेओ, न य कायबो परस्स पीडयरो। "सीयाऍ नहऽणुभूओ, महाववाओ वयणहेऊ ॥ मण्डलिया उज्जाणे, सुदरिसणो आगओ मुणिवरिन्दो । दिट्ठो य वन्दिओ सो, सम्मद्दिट्ठीण लोएणं ॥ साहुं पलोइउं सा, वेगवई कहइ सयललोयस्स । एसो उज्जाणत्थो, महिलाऍ समं मए दिट्टो ॥ तत्तो गामनणेणं, अणायरो मुणिवरस्स आढत्तो । तेण वि य कओ सिग्धं, अभिग्गहो धीरपुरिसेणं ॥ न मज्झ इमो दोसो, फिट्टिहिइ असण्णिदुज्जणनिउत्तो । तो होही आहारो, भणियं चिय एव साहूणं ॥ १४७॥ १३३ ॥ १३४ ॥ १३५ ॥ १३६ ॥ 1 । १. ०म्मरयमलं वा० – मु० । २. पुव्ववेरपविद्धा । सं० प्रत्य० । ३. वि हु सो— प्रत्य० धम्मफलेलं देवो जाओ अह वरचिमाणम्मि—मु० । ५. वि दुब्बाओ - मु० । ६. सीयाए जह अणुओ, म० १४२ ॥ १४३ ॥ साथ विरोध करके वैराग्ययुक्त उसने दीक्षा ली और धीर-गम्भीर उसने कैलास पर्वत पर तप किया । (१३२) उस समय सर्वथा निर्भय होकर रावणने कैलास उठाया और वालिने अंगूठे से उसे संक्षुब्ध किया । (१३३) ध्यानरूपी अभिसे समय कर्म कचरे को जलाकर वालिने अजर, अमर, और रजहीन मोक्ष स्थान प्राप्त किया । (१३४) Jain Education International १४४ ॥ १४५ ॥ १४६ ॥ इस तरह पहले बाँधे हुए दृढ़ वैरभावके कारण एक-दूसरेका वध करते हुए वसुदेव और श्रीकान्त दोनों संसारमें घूमने लगे । (१३५) स्वयम्भूकी वल्लभा वेगवती थी वह कर्मविपाकवश सीताके रूपमें राक्षसेन्द्र रावण द्वारा अपहृत हुई । (१३६) वेगवती के लिए जो श्रीभूति स्वयंभूके द्वारा मारा गया था वह धर्म के फलस्वरूप विमानमें देव हुआ । (१३७) वहाँसे च्युत होकर वह प्रतिष्ठनगर में विद्याधरों का राजा पुनर्वसु हुआ । पत्नीके लिए शोक और निदान करके उसने दीक्षा ली । (२३८) घोर तप करके सनत्कुमार देवलोकमें वह देवरूपसे पैदा हुआ। वहाँसे च्युत होने पर सुमित्राका पुत्र यह लक्ष्मण हुआ है । ( १३६) चूँकि पूर्वजन्म में स्वयम्भू श्रीभूति पुरोहितका शत्रु था, इसलिए लक्ष्मणने इस जन्म में उस रावणका वध किया । (१४०) जो जिसको पूर्वभवमें मारता है वह उसके द्वारा मारा जाता है, इसमें सन्देह नहीं । हे विपण ! संसार में रहनेवाले जीवोंकी यह स्थिति है । (१४१ ) इस तरह जीवोंके पहलेके चैर के बारेमें तुमने यह सुना । अतः सबलोग वैरका दूरसे ही त्याग करें । (१४२) वचनसे दूसरेको पीड़ा देनेवाला उद्वेग नहीं करना चाहिए उदाहरणार्थ - वचन के कारण सीताने बड़े भारी अपवादका अनुभव किया । (१४३) For Private & Personal Use Only ५४७ एक बार मण्डलिक उद्यान में सुदर्शन नामक मुनि पधारे। सम्यग्दृष्टि लोगोंने उनका दर्शन एवं वन्दन किया । (१४४) साधुको देखकर उस वेगवतीने सब लोगों से कहा कि उद्यानमें ठहरे हुए इस मुनिको मैंने स्त्रीके साथ देखा था । (१४५ ) तब गाँव के लोगोंने मुनिवरका अनादर किया । उस धीर पुरुषने भी शीघ्र ही अभिग्रह किया कि अज्ञानी और दुर्जन लोगों द्वारा आरोपित यह दोष जब दूर होगा तभी मेरा भोजन होगा । उसने साधुओंसे यह कहा भी । (१४६-१४७) ४. • वइकएण संभुणा वहिओ । प्रत्य० । ७. सत्बैलो० - प्रत्य० । . www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406