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१०३. १७५ ]
१०३. रामपुव्वभवसीयापव्वज्जाविद्दाणपर्व्व
१६४ ॥
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रामो वि केवलिं तं अभिवन्देऊण सेसया य मुणी । सीयाऍ सन्नियासं, संपत्तो अप्पबीओ सो ॥ रामेण तओ सीया, दिट्ठा अज्जाण मज्झयारत्था । सेयम्बरपरिहाणा, तारासहिय व ससिलेहा ॥ एवंविहं निएउं, संजमगुणधारिणि पउमनाहो । चिन्तेइ कह पवन्ना, दुक्करचरियं इमा सीया ॥ १६६ ॥ एसा मज्झ भुओयरमल्लीणा निययमेव सुहललिया । कह दुबयणचडयरं, सहिही मिच्छत्त महिलाणं ? ॥ १६७॥ जाए बहुप्पयारं भुक्तं चिय भोयणं रससमिद्धं । सा कह लद्धमलद्धं, भिक्खं भुंनीहि परदिन्नं ? ॥ १६८ ॥ वीणावंसवेणं, उवगिज्जन्ती य ना सुहं सइया । कह सा लहिही निर्द, संपइ फरुसे धरणिवट्टे ? ॥ एसा बहुगुणनिलया, सीलमई निययमेव अणुकूला । परपरिवारण मए मूढेणं हारिया सोया ॥ एयाणि य अन्नाणि य, परचिन्तेऊण तत्थ पउमाभो । परमत्थमुणियकरणो, तो भइ रामदेवो, एकटं चेव परिवसन्तेणं । जं चिय तुह दुच्चरियं, एवं सा जणयसुया, लक्खणपं मुहेहि नरवरिन्देहिं । अहिवन्दिया सुसमणी, अहियं परितुट्ठहियएहिं ॥ अहिणन्दइ वइदेही, एवं भणिऊण राहवो चलिओ । भडचक्रेण परिवुडो, संपत्ती अत्तणो भवणं ॥ एयं राहवचरियं, पुरिसो जो पढइ सुणइ भावियकरणो ।
१७० ॥
पणमइ ताहे जणयतणयं
१७१ ॥
कयं मए तं खमेज्जालु ॥
१७२ ॥
१७३ ॥
१७४ ॥
सो लहइ बोहिलाएं, हवइ य लोयम्मि उत्तमो विमलनसो ॥ १७५ ॥
॥ इइ पउमचरिए रामपुव्वभवसीयापव्वज्जाविहाणं नाम तिउत्तरसयं पव्वं समत्तं ॥
॥
ये थे वैसे लौट गये । (१६३) राम भी उन केवली तथा दूसरे सुनियोंको वन्दन करके लक्ष्मणके साथ सीताके पास गये । (१६४) वहाँ रामने सीताको थार्याओंके बीच अवस्थित देखा । श्वेत वस्त्र पहने हुई वह तारा सहित चन्द्रमाकी लेखा की भाँति प्रतीत होती थी । (१६५) इस तरह संयमगुणको धारण करनेवाली सीताको देखकर राम सोचने लगे कि इस सीताने दुष्कर चारित्र कैसे अंगीकार किया होगा ? (१६६) मेरी भुजाओं में लीन रहनेवाली और सर्वदा सुख के साथ दुलार की गई यह मिध्यात्वी कियोंके कठोर दुर्वचन कैसे सहती होगी ? (१६७) जिसने रस से समृद्ध नानाविध खाद्योंका भोजन किया हो वह दूसरेके द्वारा दी गई और कभी मिली या न मिली ऐसी भिक्षा कैसे खाती होगी ? (१६८) वीणा एवं बंसीकी ध्वनि से -गाई जाती जो सुखपूर्वक सोती थी वह कठोर धरातल पर कैसे नींद लेती होगी ? (१६६ ) अनेक गुणोंके धामरूप, शीलवती और सर्वदा अनुकूल ऐसी इस सीताको मूर्ख मैं दूसरों के परिवाद से खो बैठा हूँ । (१७०) ये तथा ऐसे ही दूसरे विचार करके मनमें परमार्थको जाननेवाले रामने तब सीताको प्रणाम किया । (१७१) तब रामने कहा कि साथ में रहते हुए मैंने जो तुम्हारा बुरा किया हो उसे क्षमा करो । १७२ ) इस प्रकार हृदय में अत्यन्त प्रसन्न लक्ष्मण प्रमुख राजाओं द्वारा सुश्रमणी जनकसुता सीता अभिवन्दित हुई । (१७३) वैदेही प्रसन्न है - ऐसा कहकर सुभटोंके समूहसे घिरे हुए राम चले और अपने भवन पर आ पहुँचे । ( १७४) अन्तःकरण में श्रद्धाके साथ जो पुरुष यह रामचरित पढ़ेगा या सुनेगा उसे बोधिलाभ प्राप्त होगा और वह लोक में उत्तम तथा विमल यशवाला होगा । (१७५)
॥ पद्मचरितमें रामके पूर्वभव तथा सीताकी प्रव्रज्याका विधान नामक एक सौ तीसरा पर्व समाप्त हुआ ||
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१. भुओवरिम० - प्रत्य० । २ ० पउमेहि-मु० । ३. परिमिओ संपत्तो सो सयं भवणं - मु० । ४. एवं रा० - प्रत्य० ।
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