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पउमचरियं
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तो वेगवईऍ मुहं, सू चिय देवयानिओगेणं । भणइ तओ सा अलियं, तुम्हाण मए समक्खायं ॥ तत्तो सो गामनणो, परितुद्रो मुणिवरस्स अहिययरं । सम्माणपीइपमुहो, नाओ गुणगहणतत्तिल्लो ॥ नं दाऊण ऽववाओ, बिसोहिओ मुणिवरस्स कन्नाऍ । तेण इमाए विसोही, जाया विहु नणयतणया दिट्ठो सुओ व दोसो, परस्सं न कयाइ सो कहेयबो । निणधम्माहिरएणं, पुरिसेणं महिलिया वा ॥ रागेण व दोसे व नो दोसं नणवयस्स भासेइ । सो हिण्डइ 'संसारे, दुक्खसहस्साइं अणुहुन्तो तं मुनिवरस्स वयणं, सोऊण णरा -ऽमरा सुविम्हइया । संवेगसमावन्ना, विमुक्कवेरा तओ जाया ॥ बहवो सम्मदिट्टी, नाया पुण सावया तहिं अन्ने । भोगेसु विरत्तमणा, समणत्तं केइ पडिवन्ना ॥ तो कयन्तवयणो, सुणिऊणं भवसहस्सदुक्खोहं । दिक्खाभिमुहो पउमं, भणइ पहू सुणसु मह वयणं ॥ १५५॥ संसारम्मि अणन्ते, परिहिण्डन्तो चिरं सुपरितन्तो । दुक्खविमोक्खट्टे हं, राहव ! गेण्हामि पबज्जं ।। १५६ || तो भइ पनाहो, कहसि तुमं उज्झिउं महं नेहं । गेण्हसि दुद्धरचरियं, असिधारं जिणमयाणुगयं ॥ १५७॥ कह चेव छुहाईया, विसहिस्सिसि परिसहे महाघोरे । कण्टयतुल्लाणि पुणो, वयणाणि य खलमणुस्साणं ॥ १५८॥ उभडसिराकवोलो, अट्ठियचम्माबसेसतणुयो । गेव्हिहिसि परागारे, कह भिक्खादाणमेचाहे ! ॥ १५९ ॥ जंपइ कयन्तवयणो, सामिय ! जो तुज्झ दारुणं नेहं । छड्डेमि अहं सो कह, अन्नं कर्ज न साहेमि ? ॥ १६०॥ एवं निच्छियभावो, कयन्तवयणो वियाणिओ जाहे । ताहे च्चिय अणुणाओ, लक्खणसहिएण रामेणं ॥ १६१ ॥ आपुच्छिण पउमं, सोमित्तिसुयं च सबसुहदायं । गेण्हइ कयन्तवयणो, मुणिस्स पासम्मि पबज्जं ॥ अह सयलभूसणन्ते, सुरासुरा पणमिऊण भावेणं । निययपरिवारसहिया, जहागया पडिगया सबे ॥ देवताओं के प्रयत्नसे वेगवतो का मुँह सूज गया । तब उसने कहा कि तुमको मैंने झूठमूठ कहा था । (१४८) इस पर गाँवके वे लोग आनन्दित होकर मुनिवरका और भी अधिक सम्मान व प्रेम करने लगे तथा गुणोंके ग्रहण में तत्पर हुए। (१४६) मुनिवर पर अपवाद लगाकर कन्याने फिर उसे विशुद्ध किया था, इसलिए इस जनकतनया की विशुद्धि हुई । (१५०)
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जिनधर्म में निरत पुरुष अथवा स्त्रीको देखा या सुना दोष दूसरेसे नहीं कहना चाहिए । (१५१) राग अथवा द्वेषवश जो लोगोंसे दोष कहता है वह हजारों दुःख अनुभव करता हुआ संसार में भटकता है । (१५२)
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उस मुनिवरका उपदेश सुनकर मनुष्य और देव विस्मित हुए और वैरका परित्याग करके संवेगयुक्त हुए । (१५३) वहाँ बहुतसे सम्यग्दृष्टि हुए, दूसरे पुनः श्रावक हुए और भोगोंसे विरक्त मनत्राले कई लोगोंने श्रमणत्व अंगीकार किया । (१५४) तब हजारों दुःखोंसे युक्त संसारके बारेमें सुनकर दीक्षाभिमुख कृतान्तवदनने रामसे कहा कि, हे प्रभो ! मेरा कहना आप सुनें । (१५५) हे राघव ! अनन्त संसार में चिरकाल से घूमता हुआ अत्यन्त दुःखी मैं दुःखके नाशके लिए दीक्षा लेना चाहता हूँ । (१५६) तब रामने कहा कि तुम मेरे स्नेहका त्याग करके ऐसा कहते हो | जिनधर्मसम्मत असिधारा जैसे दुर्धर चारित्रको तुम ग्रहण करना चाहते हो । (५५७) तुम भूख आदि अतिघोर परीप तथा खल मनुष्योंके कण्टकतुल्य वचन कैसे सहोगे ? ( १५८) उभरी हुई नसोंसे युक्त कपोलवाले तथा अस्थि एवं चर्म ही बाक़ी रहे हैं ऐसे कृश शरीरवाले तुम दूसरोंके घरमें केवल भिक्षा दान ही कैसे ग्रहण करोगे ? (१५९) इस पर कृतान्तवदनने कहा कि, हे स्वामी ! मैं यदि आपके प्रगाढ़ स्नेहका परित्याग कर सकता हूँ तो अन्य कार्य भी क्यों नहीं कर सकूँगा ? (१६०) इस तरह जब दृढ़ भाववाले कृतान्तवदनको जाना, तब लक्ष्मणके साथ रामने अनुमति दी । (१६१) सब प्रकार के सुख देनेवाले राम और लक्ष्मणसे पूछकर कृतान्तवदनने मुनिके पास दीक्षा ग्रहण की । (१६२)
इसके बाद भावपूर्वक सकलभूषण मुनिवरको प्रणाम करके वे सुर और असुर अपने अपने परिवारके साथ जैसे १. ०स्स ण य सो कयाइ कहियव्दो - प्रत्य० । २. संसारं — प्रत्य० । ३. व्यपं मुणिऊण परा मणेसु विम्ह० मु० । ४. •हाईया विसहिहिसि परीसद्दा महाघोरा । क० मु० । ५. ०ण रामं प्रत्य० ।
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