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१०३. रामपुव्वभव-सीयापव्वज्जाविहाणपत्र रुट्टो सयंभुराया, सिरिभूई मारिऊण वेगवई । आयझइ रयणीए, पुणो वि अवगृहइ रुयन्ती ॥ ९९ ॥ कलुणाई विलवमाणी. नेच्छन्ती चेव सबलकारेणं । रमिया वेगवई सा, सयंभुणा मयणमढेणं ॥ १०० ।। रुट्टा भणइ तओ सा, पियरं वहिऊण जं तुमे रमिया । उप्पज्जेज वहत्थे, पुरिसाहम ! तुज्झ परलोए ॥१०१॥ अरिकन्ताएँ सयासे, वेगवई दिक्खिया समियपावा । जाया संवेगमणा, कुणइ तवं बारसवियप्पं ॥ १०२ ॥ घोरं तवोविहाणं, काऊण मया समाहिणा तत्तो । बम्भविमाणे, देवी जाया अइललियरूवा सा ॥ १०३ ॥ मिच्छाभावियकरणो, तत्थ सयभू वि कालधम्मेणं । संजुत्तो परिहिण्डइ, नरय-तिरिक्खासु जोणीसु ॥ १०४ ।। कम्मस्स उवसमेणं, जाओ उ कुसद्धयस्स विपस्स । पुत्तो सावित्तीए, पभासकुन्दो ति नामेणं ॥ १०५ ॥ अह सो पभासकुन्दो, मुणिस्स पासम्मि विनयसेणस्स । निग्गन्थो पबइओ, परिचत्तपरिग्गहारम्भो ॥ १०६ ॥ रइरागरोसरहिओ, बहुगुणधारी जिइन्दिओ धीरो । छट्ट-ऽटम-दसमाइसु, भुञ्जन्तो कुणइ तवकम्मं ॥ १०७ ॥ एवं तबोधरो सो, सम्मेयं वन्दणाएँ वच्चन्तो । कणगप्पहस्स इड्डी, पेच्छइ विजाहरिन्दस्स ॥ १०८ ॥ अह सो कुणइ नियाणं, होउ महं ताव सिद्धिसोक्खेणं । भुञ्जामि खेयरिद्धि, तबस्स जइ अस्थि माहप्पं ॥१०९॥ पेच्छह भो ! मूढत्तं, मुणीण सनियाणदूसियतवेणं । रयणं तु पुहइमोल्लं, दिन्नं चिय सागमुट्ठोए ॥ ११० ॥ छेत्तण य कप्पूरं, कुणइ वई कोद्दवस्स सो मूढो । आचुण्णिऊण रयणं, अविसेसो गेहए दोरं ॥ १११ ॥ दहिऊण य गोसीसं, गेण्हइ छारं तु सो अबुद्धीओ । जो चरिय तवं घोरं, मरइ य सनियाणमरणेणं ॥११२॥ अह सो नियाणदूसियहियओ महयं पि करिय तवचरणं । कालगओ उववन्नो, देवो उ सणंकुमारम्मि ॥११३॥ तत्तो चुओ समाणो, जाओ च्चिय केकसीऍ गब्भम्मि । रयणासवस्स पुत्तो, विक्खाओ रावणो नाम ॥११४॥
नं एरिसी अवस्था, हवइ मुणीणं पि दूमियमणाणं । सेसाण किं च भण्णइ, वय-गुण-तव-सोलरहियाणं? ॥११५॥ - स्वयम्भू राजा रातके समय श्रीभूतिको मारकर वेगवतीको ले गया और रोती हुई उसका आलिंगन किया। (88) करुण विलाप
करती हुई और न चाहनेवाली वेगवतीके ऊपर कामसे मूढ़ स्वयम्भूने बलात्कार किया। (१००) रुष्ट उसने कहा कि हे अधम पुरुष ! पिताको मारकर तुमने जो रमण किया है उससे परलोकमें तुम्हारे वधके लिए मैं उत्पन्न हूँगी। (१०१) बादमें शमित पापवाली वेगवतीने अरिकान्ताके पास दीक्षा ली और मनमें वैराग्ययुक्त होकर बारह प्रकारका तप किया। (१०२) घोर तप करके समाधिपूर्वक मरने पर वह ब्रह्मविमानमें अत्यन्त सुन्दर रूपवाली देवी हुई । (१०३)
मिथ्यात्वसे भावित अन्तःकरणवाला स्वयम्भू भी कालधर्मसे युक्त हो नरक-तियच आदि योनियोंमें परिभ्रमण करने लगा। (१०४) कर्मके उपशमके कारण वह कुशध्वज ब्राह्मगका सावित्रीसे उत्पन्न प्रभासकुन्द नामका पुत्र हुआ। (१०५) रति एवं राग-द्वेपसे रहित, बहुत-से गुणोंको धारण करनेवाला, जितेन्द्रिय और धीर वह वेला, तेला, चौला आदिके बाद भोजन करके तप करने लगा। (१०६-७) ऐसे उस तपस्वीने सम्मेतशिखरकी ओर जाते हुए विद्याधरराज कनकप्रभकी ऋद्धि देखी। (१०८) तब उसने निदान (संकल्प ) किया कि मोक्षके सुखले मुझे प्रयोजन नहीं है। तप का यदि माहात्म्य है तो खेचरोंकी ऋद्धिका मैं उपभोग करूँ। (१०९) निदानसे तपको दूपित करनेवाले मुनिकी मूर्खताको तो देखो! पृथ्वी जितने मृल्य का रत्न उसने मुट्ठी भर सागके लिए दे दिया। (११) जो तपश्चरण करके निदानयुक्त मरणसे मरता है वह मूर्ख मानो कपुरके पेड़को काटकर कोदोंकी खेती करना चाहता है, रत्नको पीसकर वह अविवेकी डोरा लेना चाहता है, वह अज्ञानी गोशीर्पचन्दनको जलाकर उसकी राख ग्रहण करता है। (१११-११२) निदानसे दूपित हृदयवाला वह बड़ा भारी तप करके मरने पर सनत्कुमार देवलोकमें देवरूपसे उत्पन्न हुआ। (११३) वहाँसे च्युत होने पर वह केकसीके गर्भसे रत्नश्रवाके पुत्र विख्यात रावणके नामसे उत्पन्न हुआ। (११४) सन्तप्त मनवाले मुनियोंकी भी यदि ऐसी अवस्था होती है तो फिर व्रत, गुण, तप एवं शीलरहित बाकी लोगोंके बारेमें तो कहना ही क्या ? (११५) ब्रह्मेन्द्र भी च्युत होकर
१. •न्ती तेण सव–प्रत्य० । २. संपत्तो-प्रत्य० । ३. गइ-दोस०-मु०। ४. केकसीए-प्रत्य० । ६६
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