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पउमचरियं पञ्चमहबय किया, निच्चं सज्झाय-झाण- तवनिरया । धण-सयणविगयसङ्गा, ते पत्तं साहवो भणिया ॥ सद्धा-सत्ती- भत्ती - विन्नाणेण हवेज्ज नं दिनं । साहूण गुणधराणं तं दाणं बहुफलं भणियं ॥ तस्स पभावेण नरा, हेमबयाईसु चेव उवबन्ना । भुञ्जन्ति विसयसोक्खं, वरतरुणीमज्झयारत्था ॥ संजमरहियाण पुणो, नं दिज्जइ राग-दोसकलसाणं । तं न हु फलं पयच्छइ, धणियं विधिउज्जमन्ताणं ॥ एवं तु भोगभूमी, तुझं कहिया मए समासेणं । तह उज्जमेह संपइ, जेण निरुत्तेण पावेह ॥ अन्तरदीवा मणुया, अट्ठावीसाविहा उ सीहमुहा । उक्कोसेणं आउं, ताण य पलियट्टमं भागं ॥ वन्तरसुराण उदरिं, पञ्चविद्या जोइसा तओ देवा । चन्दा सूरा य गहा, नक्खत्ता तारया नेया ॥ एए भमन्ति मेरुं पयाहिणंता सहावतेयंसी । रइसागरोवगाढा, गयं पि कालं न यान्ति ॥ नोइसियमुराणुवरिं, कप्पो नामेण हवइ सोहम्मो । तह य पुणो ईसाणो, सणकुमारो य माहिन्दो ॥ बंभो कप्पो य तहा, लन्तयकप्पो य होइ नायबो । तह य महासुक्को वि य, तह अट्टमओ सहस्सारो ॥ तत्तोय आणओ पाणओय तह आरणो मुणेयवो । कप्पो अच्चुयनामो, उत्तमदेवाण आवासो ॥ कप्पाणं पुण उवरिं, नव गेवेज्जाईं मणभिरामाई । ताण वि अणुद्दिसाईं, पुरओ आइञ्चपमुहाई ॥ विजयं च वेजयन्तं नयन्तमवरा इयं मणभिरामं । अहमिन्दवरविमाणं, सबठ्ठे चेव नायबं ॥ तस्स वि य जोयणाई, बारस गन्तूण उवरिमे भागे । इसिपव्भारा पुढवी, चिट्टन्ति नहिं ठिया सिद्धा ॥ पणयालीसं लक्खा, नोयणसंखाऍ हवइ वित्थिण्णा । अट्टेव य बाहल्ला, उत्ताणयछत्तसंठाणा ॥ एत्तो विमाणसंखा, कहेमि बत्तीससयसहस्साईं । सोहम्मे ईसाणे, अट्ठावीसं तु भणियाई ॥ १४९ ॥ महाव्रतसे युक्त, स्वाध्याय ध्यान एवं तपमें निरन्तर निरत तथा धन एवं स्वजनोंके संगसे विरत जो साधु होते हैं वे पात्र कहे जाते हैं । (१३४) श्रद्धा, शक्ति, भक्ति और ज्ञानपूर्वक जो दान, गुण धारण करनेवाले साधुओंको दिया जाता है वह बहुत फलदायी कहा गया है । (१३५) उसके प्रभावसे हैमवत आदिमें उत्पन्न मनुष्य सुन्दर तरुणियोंके बीच में रहकर विषयसुखका उपभोग करते हैं । (१३६) संयमरहित और राग-द्वेषसे कलुषित व्यक्तियोंको जो दान दिया जाता है वह बहुत विधिसे उद्यम करने पर भी फल नहीं देता । (१३७ ) इसतरह मैंने तुम्हें भोगभूमिके बारे में संक्षेपसे कहा । अब तुम ऐसा उद्यम करो जिससे वह अवश्य ही प्राप्त हो । (१३८)
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अन्तद्वीपोंमें रहनेवाले मनुष्य अट्ठाईस प्रकार के तथा सिंह जैसे मुखवाले होते हैं। उनकी उत्कृष्ट आयु पल्योपमका आठवाँ भाग होती है । (१३६) व्यन्तर देवों के ऊपर चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारे-ये पाँच प्रकार के ज्योतिष्क देव जानने चाहिए। (४०) स्वभावसे तेजस्त्री ये मेरुकी प्रदक्षिणा करते हुए घूमते हैं । प्रेम-सागरमें लीन ये बीते समयको भी नहीं जानते । (१४१)
१. ० यं पि विडज०मु० । २. उनका स्थान प्रलोक है तथार्थ - ४-२५-२६ ॥
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ज्योतिष्क देवों के ऊपर सौधर्म नामका कल्प तथा ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तककल्प, महाशुक्र, आठवाँ सहस्रार, आनत, प्रारणत, आरण और अच्युत नामके उत्तम देवोंके आवास रूप कल्प आये हैं । (१४२-४४) कल्पोंके ऊपर मनोहर नौ भैवेयक आदि आए हैं। उनके भी - अनुद्दिस (?) ऐसे पूर्वसे प्रारंभ करके आदित्य प्रमुख हैं । (१४५) उनसे भी ऊपर हमिन्द्रोंके विजय, वैजयन्त, जयन्त सुन्दर अपराजित तथा सुन्दर विमान सर्वार्थसिद्ध-ये पाँच अनुत्तर विमान जानो । (१४६) इससे भी बारह योजन ऊपर के भागमें जाने पर ईषत्प्राग्भार नामकी पृथ्वी आई है जहाँ सिद्ध ठहरते हैं । (१४७) वह पैंतालीस लाख योजन विस्तृत है । आठ योजन मोटी यह खोले हुए छत्रके आकार की है । (१४८)
अब मैं विमानों की संख्या कहता हूँ । वे सौधर्ममें बत्तीस लाख और ईशान में अट्ठाईस लाख कहे गये हैं । (१४६) य अह - मु० । ३. इस शब्दका अर्थ अस्पष्ट है । आदित्यादि लोकान्तिक हैं और
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