Book Title: Paumchariyam Part 2
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 184
________________ ५३६ १०३. २०] १०३. रामपुव्वभव-सीयापव्वज्जाविहाणपव्वं सबकलागमकुसलो वि राहवो कह पुणो गओ मोहं । परजुवइसिहिपयङ्गो, कह जाओ रक्खसाहिवई ॥४॥ विजाहराहिराया, दसाणणो अइबलो वि संगामे । कह लक्खणेण वहिओ?, एयं 'साहेहि मे भयवं? ॥ ५ ॥ अह भणिउं आढतो. केवलनाणी इमाण अन्नभवे । वेरं आसि विहीसण ! रावण-लच्छीहराणं तु ॥ ६ ॥ इह जम्बुद्दीववरे, दाहिणभरहे तहेव खेमपुरे । नयदत्त णाम सिट्टी, तस्स सुणन्दा हवइ भज्जा ॥ ७ ॥ पुत्तो से धणदत्तो, बीओ पुण तस्स हवइ वसुदत्तो । विप्पो उ जन्नवक्को, ताण कुमाराण मित्तो सो ॥ ८ ॥ तत्थेव पूरे वणिओ, सायरदत्तो पिया य रयणाभा । तस्स सुओ गुणनामो, धूया पुण गुणमई नामं ॥ ९ ॥ सा अन्नया कयाई, सायरदत्तेण गुणमई कन्ना । नोबण-गुणाणुरूवा, दिन्ना धणदत्तनामस्स ॥ १० ॥ तत्थेव पुरे सेट्टी, सिरिकन्तो नाम विस्सुओ लोए । सो मग्गइ तं कन्नं, जोबण-लायण्णपरिपुण्णं ॥ ११ ॥ धणदत्तस्सऽवहरि, सा कन्ना तीएँ अत्थलुद्धाए । रयणप्पभाएँ दिन्ना, गूढं सिरिकन्तसेट्टिस्स ॥ १२ ॥ नाऊण नन्नवक्को, त गुणमइसन्तियं तु वित्तन्तं । साहेइ अपरिसेस, सिग्धं वसुदत्तमित्तस्स ॥ १३ ॥ तं सोऊणं रुट्टो, वसुदत्तो नीलवत्थपरिहाणो । वच्चइ असिवरहत्थो, रत्तिं जत्थऽच्छए सेट्ठी ॥ १४ ॥ दिट्ठो उज्जाणत्थो, सेट्ठी आयारिओ ठिओ समुहो। पहओ य असिवरेणं, तेण वि सो मारिओ सत्त ॥१५॥ एवं ते दो वि जणा, अन्नोन्नं पहणिऊण कालगयो । जाया विझापाए, कुरङ्गया पुबदुकएणं ॥ १६ ॥ भाइमरणाऽइदुहिओ, धणदत्तो दुज्जणेहिं तं कन्नं । पडिसिद्धो य घराओ, विणिग्गओ भमइ परदेसं ।। १७ ॥ मिच्छत्तमोहियमई, सा कन्ना विहिबसेण मरिऊणं । तत्थुप्पन्ना हरिणो, नत्थ मया ते परिवसन्ति ॥ १८ ॥ तीए कएण ते पुण, कुरङ्गया घाइऊण अन्नोन्नं । घोराडवीऍ जाया, दाढी कम्माणुभावेणं ॥ १९ ॥ हत्थी य महिस-वसहा, पवङ्गमा दीविया पुणो हरिणा । घायन्ता अन्नोन्नं, दो वि रुरू चेव उप्पन्ना ॥ २० ॥ और आगमोंमें कुशल राम क्यों मोहवश हुए और रावण परस्त्री रूपी अग्निमें पतिंगा क्यों हुआ ? (४) विद्याधरोंका राजा दशानन अतिबली होने पर भी संग्राममें लक्ष्मण द्वारा क्यों मारा गया ? हे भगवन् ! आप मुझे यह कहें। (५) इस पर केवलज्ञानीने कहा कि, हे विभीषण ! इन रावण एवं लक्ष्मणका परभवमें रैर था। (६) इस जम्बूद्वीपके दक्षिण-भरतक्षेत्र में आये हुए क्षेमपुरमें नयदत्त नामका एक श्रेष्ठी रहता था। उसकी सुनन्द नामकी भार्या थी। (७) उसका एक पुत्र धनदत्त और दूसरा वसुदत्त था। याज्ञवल्क्य विप्र उन कुमारोंका मित्र था। (८) उसी नगरमें वणिक् सागरदत्त और उसकी प्रिया रत्नप्रभा रहते थे। उसे गुणनामका एक पुत्र और गुणमती नामकी एक पुत्री थी। (५) बादमें कभी सागरदक्तने यौवनगुणके अनुरूप वह गुणमा कन्या धनदत्तको दी। (१०) उसी नगरमें लोकमें विभुत श्रीकान्त नामक एक सेठ रहता था। यौवन एवं लावण्यसे परिपूणे उस. कन्याकी उसने मँगनी की । (११) धनदत्तके यहाँसे अपहरण करके अर्थलुब्ध रत्नप्रभाने वह कन्या गुप्तरूपसे श्रीकान्त सेठको दी। (१२) गुणमती सम्बन्धी वृत्तान्त जानकर याज्ञवल्क्यने शीघ्र ही वह सारा वृत्तांत मित्र वसुदत्तसे कहा। (१३) उसे सुन क्रुद्ध वसुदत्त काले कपड़े पहनकर और हाथमें तलवार लेकर रात के समय जहाँ सेठ था वहाँ गया। (१४) उसने उद्यानमें ठहरे हुए सेठको देखा। ललकारकर वह सामने खड़ा हुआ और तलबारसे प्रहार किया। उसने भी शत्रुको मारा । (१५) इस तरह एक-दूसरे पर प्रहार करके वे दोनों मर गये और पूर्वके पापसे विन्ध्याटवीमें हरिण हुए। (१६) . भाईके मरग आदिसे दुःखित धनदत्त, दुर्जनों द्वारा उस कन्या के रोके जाने पर, घरसे निकल पड़ा और परदेशमें घूमने लगा। (१८) मिथ्यात्वसे मोहित द्धिवाली वह कन्या मरकर भाग्यवश वहीं उत्पन्न हुई जहाँ वे हरिण रहते थे। (१६) हाथी, भैंसे, बैल, बन्दर तथा फिर हरिण-इस तरह अन्योन्यके घात करके वे रुरु अनार्य मनुष्य) के रूपमें पैदा हुए। (२०) १. साहेसि-प्रत्य० । २. अह भाणि पयत्तो-मु.। ३. दत्तो नाम धणी, त.-मु०। ४. विप्पो य जण्णवक्को होइ कु.-प्रत्य०। ५. अह अन्नया-प्रत्य०। ६. .या। उप्पझ्या विंझाए - प्रत्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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